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________________ भारतीय दर्शन और धर्म ३५७ के विषय में प्रारम्भ हुआ था, वह अनेक देवताओं के विषय में भी चालू रहा । एकदेवता वाद ही अनेकदेवता वाद के रूप में परिणत हया और जब उन सभी देवताओं को एक देवता का ही रूपान्तर माना जाने लगा, तब उन सबकी पूजा प्रारम्भ हुई । ब्राह्मण ग्रन्थों में जीवन के धार्मिक विकास का परिचय प्राप्त होता है। उपनिषदों में ऐसे सन्दर्भ मिलते हैं, जिनसे दार्शनिक साहित्य का विकास हुआ है, परन्तु उनमें किसी सिद्धान्त का विधिपूर्वक स्पष्टीकरण नहीं हुआ है। प्रत्येक उपनिषद् में कई सिद्धान्त विद्यमान हैं। तथापि उपनिषदों में मौलिक रचना विद्यमान है, जिनसे सुसम्बद्ध दार्शनिक भावों का विकास हो सके । प्रत्येक दर्शन उस दर्शन के पढ़ने वाले विद्यार्थी से आशा रखता है कि वह इन दर्शनों के प्राचारभूत प्राचीन ग्रन्थों पर दृढ़ आस्था रक्खेगा और उन ग्रन्थों में जो निष्कर्ष निकाले गये हैं, उनको मानेगा । ऐसा कोई भी दर्शन नहीं है, जो प्राचीन ग्रन्थों ( वेद, उपनिषद् आदि ) की प्रामाणिकता को स्वीकार न करता हो और उनमें निर्दिष्ट सिद्धान्तों को न माने । इस दृष्टि से दर्शनों की उपमा एक विकसित होते हुए फूल से दे सकते हैं, जिसके दल अपने फूल से पृथक् न होकर उसके साथ ही संबद्ध रहते हैं। पाश्चात्य विद्वानों ने भारतीय दर्शनों पर निराशावादी होने का दोषारोपण किया है । उन्होंने उसके समर्थन के लिए युवित दी है कि इनमें अर्थ और काम को हीन स्थान दिया गया है और संन्यास का महत्त्व वर्णन किया गया है । उनका यह दोषारोपण सर्वथा असत्य है, क्योंकि निराशावाद सभी वस्तुओं को दोषमय मानता है और मनुष्य को आशा दिलाने के स्थान पर उसके मस्तिष्क को निराशापूर्ण बनाता है। भारतीय दार्शनिकों ने अर्थ और काम को जो महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं दिया है, उसका कारण केवल यह नहीं है कि ये आत्मा के बन्धन के कारण हैं, अपितु मुख्य कारण यह है कि अर्थ और काम को गौण स्थान देने से एक विशेष लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति होती है । भारतीय, जो संन्यास
SR No.032058
Book TitleSanskrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV Vardacharya
PublisherRamnarayanlal Beniprasad
Publication Year1962
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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