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________________ ३३८ संस्कृत साहित्य का इतिहास प्रकार का है। ऐसा भोजन ही सर्वोत्तम माना गया है, जिससे सत्त्व गुण की वृद्धि हो । अतएव आयुर्वेद की पद्धति नीति-शास्त्र के भी सिद्धान्तों का वर्णन करती है। आयुर्वेद में दार्शनिक तथा शरीर-तत्त्व सम्बन्धी सभी जीवन की परिस्थितियों का वर्णन है। इसमें औषधि-चिकित्सा तथा शल्य-चिकित्सः दोनों दृष्टि से अवरोधात्मक तथा रोगनाशक चिकित्सा का वर्णन किया गया है । आयुर्वेद में स्वीकृत त्रिदोषों में से कफ का कार्य है--शीतलता प्रदान करना, विभिन्न रसों को सुरक्षित रखना और उनकी वृद्धि करना । बात या वायु में शारीरिक चेष्टा-सम्बन्धी सभी चीजों का समावेश है । पित्त के द्वारा शरीर में उष्णता की उत्पत्ति होती है और शरीर के पोषक तत्त्वों को जीवन प्राप्त होता है । भोजन का पाचन तथा रक्त में रंग का पाना आदि भी इसी के द्वारा होता है । रोगों की चिकित्सा का सामान तैयार करने से पूर्व इस बात का विशेष ध्यान रक्खा गया है कि वात, पित्त और कफ की विषमता को ठोक ढंग से समझ लिया जाए । साथ ही ऋतु का प्रभाव जो स्वास्थ्य पर पड़ता है, उसको भी ध्यान में रक्खा गया है । चिकित्सा को दो भागों में विभक्त किया गया है-उष्ण और शीत । रक्त-संचार का पर्याप्त स्पष्टता के साथ अध्ययन किया गया है । शल्य-चिकित्सा का बड़े रूप में प्रयोग होता था और कठिन चीर-फाड़ भी की जाती थी । प्राचीन ग्रन्थों में शल्य-चिकित्सा के उपयोगी औजारों का भी वर्णन है। गर्भविज्ञान का अध्ययन और प्रयोग दोनों होता था । क्षयरोग का विस्तार के साथ वर्णन किया गया है । आयुर्वेद में आठ विभाग हैं । (१) शल्य इसमें शल्य-चिकित्सा और प्रसूतिकर्म का वर्णन है। (२) शालाक्य । इसमें सिर तथा उसके अंगों के रोगों का अध्ययन किया जाता है। (३) कागचिकित्सा । शरीर के रोगों की चिकित्सा । (४) भूत-विद्या । कृत्रिम निद्रा के द्वारा रोगों की चिकित्सा। १. रामायण, सुन्दरकाण्ड २८-६ ।
SR No.032058
Book TitleSanskrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV Vardacharya
PublisherRamnarayanlal Beniprasad
Publication Year1962
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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