SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय २५ काव्य और नाट्य शास्त्र के सिद्धान्त काव्य और नाटकों की उत्पत्ति और विकास के साथ कवियों और लोचों को आवश्यकता प्रतीत हुई कि नवाभ्यासियों के पथप्रदर्शन के लिए तथा परकाल में रचनाओं को दुर्बोध होने से बचाने के लिए कतिपय नियमों का निर्माण किया जाय । काव्यशास्त्र के नियमों से पूर्व नाट्यशास्त्र के नियम बने । रसोत्कर्ष में सहायक समझकर अलंकारों को भी कुछ महत्त्व दिया गया । अलंकारों को महत्त्व देने के कारण इस विभाग को अलंकारशास्त्र नाम दिया. गया । इसको साहित्य का एक विभाग भी माना जाता है, क्योंकि इसमें शब्दार्थ सम्बन्धों की अविच्छिन्नता पर बल दिया गया है । साधारणतया साहित्यशास्त्र में निम्नलिखित विषयों पर विचार होता है -- काव्य के लक्षण और उसके सिद्धान्त, शब्दशक्ति का विवेचन, नायक-नायिका प्रादि पात्रों के गुण और भेद, रस-निरूपण, गुण और दोषों का विवेचन, नाट्यशास्त्र के तत्त्व और अलंकार-निरूपण । साहित्यशास्त्र के विकास के विभिन्न कालों में यह प्रयत्न होता रहा है कि यह निश्चय किया जाय कि काव्य के मूल तत्त्व क्या हैं और उनको कैसे प्राप्त किया जा सकता है । विभिन्न दृष्टिकोण से काव्य और नाटकों की विशेषताओं को देखा गया और इसका परिणाम भी विभिन्न प्रकार का प्राप्त हुआ । काव्य और नाटकों पर इस प्रकार के अनुसन्धान का जो परिणाम निकला, उसके आधार पर इनके विषय में विभिन्न वाद प्रारम्भ हुए । इस प्रकार के आठ वाद मुख्य रूप से प्रचलित हैं -- प्रत्येक उस तत्त्व को ही मुख्यता देते हैं । उनके नाम हैं' - रीति, रस, अलंकार, वक्रोक्ति, ध्वनि, गुण, अनुमान और औचित्य | रीतिवाद के आचार्यों का मत है कि काव्य की आत्मा रीति ' (शैली) है । प्रारम्भ में दो शैलियाँ प्रचलित थीं— वैदर्भी और गौड़ी । वैदर्भी रीति में परि
SR No.032058
Book TitleSanskrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV Vardacharya
PublisherRamnarayanlal Beniprasad
Publication Year1962
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy