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________________ संस्कृत नाटक, उनकी उत्पत्ति, उनकी विशेषताएँ और उनके भेद २१५ चाहती है, अतएव वह प्राकृतिक दृश्यों के प्रदर्शन को विशेष महत्त्व नहीं देती। आलोचक नाटक के अन्दर किसी ऐसी चीज का होना सहन नहीं कर सकते हैं, जो मन की रस-मग्नता को विक्षुब्ध करे । यदि रंगमंच पर अश्लील दृश्य और जीवन की कठोर वास्तविकता का ही प्रदर्शन किया जाय तो इससे जनता का मानसिक स्तर निकृष्ट होगा । नाटकों का उद्देश्य मानसिक स्तर को ऊँचा करना है । अतः नाटकों में कुछ अंश तक आदर्शवादिता सहनीय है । संस्कृत नाटकों के भेद संस्कृत नाटकों के जो अनेक भेद उपलब्ध होते हैं, उससे उसके विस्तृत विकास का पता चलता है । नाटकों को दृश्यकाव्य या रूपक कहते हैं । रूपक का अभिप्राय है किसी वस्तु या कार्य को दृश्य रूप में प्रस्तुत करना । सम्पूर्ण दृश्यकाव्य को रूपक और उपरूपक इन दो मुख्य भागों में विभक्त किया गया है । रूपक के दस भेद हैं-नाटक, प्रकरण, भाण, प्रहसन, डिम, व्यायोग, समवकार, वीथी, अंक और ईहामृग । इन दस विभागों में से नाटक सबसे अधिक प्रचलित है। इसके बाद प्रकरण और तत्पश्चात् प्रहसन का क्रम आता है । बहुत थोड़े से दृश्यकाव्यों को छोड़कर शेष सभी इन तीन भेदों में आ जाते हैं । अन्य भेदों के दृश्यकाव्य बहुत थोड़े हैं। नाटक साधारणतया प्रसिद्ध कथा पर निर्भर होता है । इसका नायक राजा होता है। इसमें मुख्य रस शृङ्गार, वीर या करुण होता है। जैसेशाकुन्तल में शृङ्गार रस है, वेणीसंहार में वीर और उत्तररामचरित में करुण रस है । इसमें अंकों की संख्या पाँच से दस तक होती है। प्रकरण की कथा काल्पनिक होती है । इस कथा का जन्मदाता नाटककार होता है । राजकुमार के अतिरिक्त अन्य कोई इसका नायक होता है । इसमें कोई भी स्त्री, वेश्या भी, नायिका हो सकती है। इसमें अंकों की संख्या १० होती है । इस
SR No.032058
Book TitleSanskrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV Vardacharya
PublisherRamnarayanlal Beniprasad
Publication Year1962
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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