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________________ भूमिका ३ निक विचारों का इस भाषा में सुन्दर समन्वय दीखता है । वस्तुतः ऐसा कोई भी विषय नहीं है, जिसका इस भाषा में विवेचन न हुआ हो । इस काल के विकास-क्रम में पाणिनि के कठोर नियमों के होते हुए भी इस भाषा में कुछ नवीन विशेषताएँ प्राई। पाणिनि के प्रभाव के कारण भाषा, जो कि विकास की ओर उन्मुख थी, इस काल में विकसित न हो सकी । जिसका परिणाम यह हुआ कि विभाषा-सम्बन्धी विभिन्नताएँ, जो कि वैदिक काल से चली आ रही थीं, न रहीं । पाणिनि के नियमों के विरुद्ध धातु-रूपों के स्थान पर कृदन्त रूपों का व्यवहार होने लगा । ऐसे वाक्यों की रचना हुई, जिसमें क्रिया का अभाव था और उसका केवल अध्याहार किया जाता था। संक्षेप के लिए गौण वाक्यों के स्थान पर लम्बे समासों को स्थान दिया गया । पाणिनि ने भूतकाल के लकारों के विषय में जो विशेष नियम बनाए थे, उनकी उपेक्षा की गई । उदात्त आदि स्वर जो कि पाणिनि के मतानुसार संगीतात्मक थे, उनके स्थान पर बलाघात वाले स्वरों को स्थान मिला। १५ वीं शताब्दी के बाद लिखे गए विज्ञान-सम्बन्धी ग्रन्थों में क्रियाओं के गणों वाले रूपों का प्रायः अभाव मिलता है। संस्कृत भाषा के विकास और उन्नति के साथ-साथ एक भाषा और चालू थी. जिसको प्राकृत कहते हैं । यह जनसाधारण की भाषा थी। प्राकृत शब्द प्रकृति शब्द से निकला है जिसका अर्थ है जनता । (प्रकृतौ भवं प्राकृतम्) । इस प्राकृत भाषा का प्रयोग वे व्यक्ति करते थे, जो बोलचाल की संस्कृत को ठीक समझ लेते थे, परन्तु अपने भावों को प्रकट करने के लिए इसे ठीक बोल नहीं सकते थे। यद्यपि इसका स्वतंत्र अस्तित्व था, परन्तु संस्कृत से बहुत मिलती हुई थी और इस पर संस्कृत का प्रभाव भी बहुत अधिक था । इस प्राकृत की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें आत्मनेपद का सर्वथा अभाव है। १. काव्यादर्श १.३३
SR No.032058
Book TitleSanskrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV Vardacharya
PublisherRamnarayanlal Beniprasad
Publication Year1962
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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