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________________ तीसरी ढाल अपने तपश्चरण उपवास आदिका मद करना तपोमद है । अपनी प्रभुता या ऐश्वर्यका अहंकार करना प्रभुतामद है । ये मद नामके दोष हैं। जो इन मदोंको नहीं करता है, वही जीव अपनी आत्मा को जान पाता है । जो जीव इन मदोंको धारण करते हैं. उनके सम्यग्दर्शनकी निर्मलता नहीं रहती है, क्योकि ये आठों मद सम्यग्दर्शनको मलिन कर देते हैं । विशेषार्थ - अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि जीव ही जाति, कुल, बल-वैभवादिका मद करते हैं, ज्ञानी और सम्यग्दृष्टि जीव नहीं, क्योंकि, वे जानते हैं कि जो वस्तु शरीरके आश्रित हैं, उनका विनाश शरीर के विनाशके साथ ही हो जाना निश्चित है, फिर मैं पर-संयोगसे उत्पन्न हुई क्षण-भंगुर वस्तुओं का क्या अभिमान करू' ? इन वस्तुओं को मैंने पूर्वभवोंमें अनन्त वार पाया है और उनका अहंकार कर करके आज फिर संसारमें परिभ्रमण कर रहा हूँ। जिन बल वैभव और ऐश्वय आदिके मदसे प्रेरित होकर मैंने बड़े बड़े युद्ध किये, दूसरोंको नीचा दिखाया और स्वयं अभिमान के शिखर पर चढ़ा, उन बल वैभवोंका आज पता तक नहीं है, फिर इस भवमें कर्मोदयसे प्राप्त इस आकिंचन, क्षणभंगुर और तुच्छ संपदाको पाकर क्या गर्व करू ? जाति और कुलके मदसे प्रेरित होकर आज मैं जिन्हें नीच और अछूत कहता हूँ, कौन कहता है कि कल मुझे स्वयं उनमें जन्म लेकर वैसा न बन जाना पड़े । अथवा इससे पहले अनेकों बार मैं स्वयं नीच योनियोंमें उत्पन्न हुआ हूँ । स्वर्ग का महर्धिक देव भी मर
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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