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________________ छहढाला ३ निर्विचिकित्सा अंग–यह शरीर स्वभाव से ही अपवित्र है, किन्तु रत्नत्रयके धारण करने से वह भी पवित्र माना जाता है, अतएच रत्नत्रयके धारक साधु-सन्तोंके शरीर को मैला-कुचैला देखकर ग्लानि नहीं करना, प्रत्युत उनके गुणोंमें प्रीति करना निर्विचिकित्सा कहलाती है। भूख, प्यास, शीत, उष्ण, आदि नाना प्रकारके भावोंके विकृति कारक संयोगोंके मिलने पर भी चित्तको खिन्न नहीं करना और मल-मूत्रादि पदार्थोंमें वस्तुस्वभावको विचार कर ग्लानि नहीं करना भी निर्विचिकित्सा अंग कहलाता है । सम्यग्दृष्टि पुरुष रोगी, शोकी एवं मलिन पुरुषको देखकर उससे घृणा नहीं करता है, बल्कि उसकी वैयावृत्य करनेको तैयार होता है । ४ अमूढदृष्टि अंग-लौकिक प्रपंच-वधक रूढ़ियोंमें, कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु और कुधर्ममें अपनी दृष्टिको मूढ़ता रहित करना, "स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते । निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सता ।। रत्नकरंड श्रावकाचार क्षुत्तृष्णा-शीतोष्णप्रभृतिषु नानाविधेषु भावेषु । द्रव्येषु पुरीषादिषु विचिकित्सा नैव करणीया ॥ पुरुषार्थसिद्ध युपाय शरीरादौ शुचीति मिथ्यासंकल्परहितत्वं निर्विचिकित्सता । मुनीनां रत्नत्रयमंडितशरीरमलदर्शनादौ निशूकत्वं तत्र समाढौक्य वैयावृत्यविधानं वाविचिकित्सता । भावपाहुड टीका गा०७७ ।
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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