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________________ ७८ छहढाला स्वर्गमें ही जन्म हो, नरकादि दुर्गतिमें मेरा जन्म न हो । परन्तु सम्यग्दृष्टि पुरुष इस भयसे बिलकुल विमुक्त रहता है, क्योंकि वह जानता है के दुष्कर्म का फल परभवमें दुर्गति है । जब मेरा जीवन पवित्र है, तो मैं दुर्गतिमें क्यों जाऊंगा ? शारीरिक पीड़ा, रोग व्याधि, और मानसिक चिन्ता आधि आदिकी पीड़ा से भयभीत होनेको वेदनाभय कहते हैं । इस भयके कारण जीव सोचा करता है कि मैं नीरोग बना रहूँ, मेरे कभी कोई वेदना न हो । पर सम्यग्दृष्टि तो अपनी आत्माको सर्व प्रकारकी आधि-व्याधियोंसे रहित मानता है और इसीलिए उसे वेदनाभय नहीं होता। मेरा कोई रक्षक नहीं, मुझे इस आपत्तिसे बचाने वाला कोई नहीं, इस प्रकारके अरक्षासम्बन्धी भयको अत्राण-भय कहते हैं। अपने और अपने कुटुम्ब आदिकी रक्षाके उपायभूत दुर्ग, गर्भालय, गढ़, कोट, आदिके अभावसे उत्पन्न होने वाले भयको अगुप्तिभय कहते हैं । मौतसे डरनेको मरण *भद्रं चेज्जन्म स्वर्लोके मा भून्मे जन्म दुर्गतौ । इत्याद्याकुलितं चेतः साध्वसं पारलौकिकम् ॥४१।। "वेदनाऽऽगन्तुका बाधा मलानां कोपतस्तनौ । भीतिः प्रागेव कम्पोऽस्य मोहाद्वा परिदेवनम् ॥४८॥ उल्लाधोऽहं भविष्यामि माभून्मे वेदना क्वचित् । मूछव वेदनाभीतिश्चिन्तनं वा मुहुमुहुः ॥४६॥ लाटी संहिता सर्ग ४ आत्मरक्षणोपायदुर्गाद्यभावात्मकमगुप्तिभयम् । भावप्राभृत गा० ७७ की टीका.
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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