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________________ ७० • छहढाला 'आगे ज्यों-ज्यों शम और दम भाव जाग्रत होते जाते हैं, त्यों त्यों कर्मों का आस्रव रुकता जाता है अर्थात् संवर प्रकट होता जाता है । इसी शम और दमके साथ जीव जब अपनी की हुई पूर्व पाप-प्रवृत्तियोंको देखकर उन का पश्चात्ताप और प्रायश्चित्त करता है, उस पापको शुद्ध करनेके लिए तप धारण करता है तब उसके प्रति समय एक बहुत बड़े परिमाण में पूर्वबद्ध संचित कर्म झगड़े लगते हैं अर्थात् आत्मासे दूर होने लगते हैं, इसीको निर्जरा कहते हैं। . धीरे-धीरे ज्यों-ज्यों तपस्या बढ़ती जाती है, आत्म-विवेक जागृत होता है, त्यों-त्यों कर्मों की निर्जरा भी असंख्यात गुणित क्रमसे होने लगती है और कुछ कालके पश्चात् एक वह समय आता है, जब आत्मा सर्व कर्मोंसे परिक्षीण हो जाता है, आत्माके प्रदेशों पर कहीं भी एक कर्म परमाणु बंधा नहीं रह जाता है, तब वह इस पौद्गलिक शरीरको छोड़कर सिद्धालयमें जा विराजता है और यही मोक्ष कहलाता है । इस अवस्थाके पा लेनेपर जीव अजर, अमर हो जाता है, अक्षय, अव्याबाध और अनन्त सुखको प्राप्त कर लेता है और आगे अनन्तकाल तक ज्योंका त्यों निर्विकार, शुद्ध चिदानन्द अवस्थामें विद्यमान रहता है । इस कारसे सातों तत्वोंके यथार्थ श्रद्धानको व्यवहार सम्यग्दर्शन कहते हैं। देव, शास्त्र, गुरु और धर्मकी श्रद्धा इस व्यवहार सम्यग्दर्शनका प्रधान कारण है, और उसकी प्राप्ति
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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