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________________ दूसरी ढाल है, कोई आत्मलाभ प्रतीत नहीं होता। इसलिए इन सब कार्योको आत्मज्ञ पुरुषोंने मिथ्या-चारित्र कहा है। यथार्थमें जब तक मनुष्यको स्व और परका विवेक नहीं हो जाता अर्थात मैं कौनहूं, पर पदार्थ क्या हैं, मेरा और उनका परस्परमें क्या सम्बन्ध है, तब तक बाह्य क्रियाओंके करनेसे कोई भी यथार्थ लाभ नहीं होता, केवल शरीरको पीड़ा ही पहुंचती है, इसीलिए ग्रन्थकारने बहुत ठीक कहा है कि 'आतम-अनात्मके ज्ञान हीन जे जे करनी तन करन छीन ।' इस समस्त कथनका सारांश यह है कि गृहीत और अगृहीत दोनों ही प्रकारके मिथ्या-दर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र आत्माको संसारमें डुवाने वाले हैं और अनन्त दुःखोंके कारण हैं इसलिए इनको छोड़ना चाहिए, तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको धारण करना चाहिए, जिससे कि आत्मा अपने यथार्थ स्वरूपको प्राप्त कर अनन्त सुखी बन सके और संसार-परिभ्रमणसे मुक्त हो सके। दमरी ढाल समाप्त
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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