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________________ दूसरी ढाल ५१ इस प्रकार के एक धर्ममय पदार्थके कथन करनेको एकान्तवाद कहते हैं । इस एकान्तवाद के प्ररूपक शास्त्रोंको कुशास्त्र कहा गया हैं। इसके अतिरिक्त जो बातें विषयोंकी पोषण करने वाली हैं, जीवों में भय, कामोद्र ेक, हिंसा, अहंकार, राग, द्व ेष आदि जागृत करने वाली हैं, उनका जो शास्त्र प्रतिपादन करते हैं, झूठी गप्पोंसे भरे हुए हैं, असंभाव्य कथाओं, चरित्रों और आख्यानोंका निरूपण करने वाले हैं, ऐसे सब शास्त्र कुशास्त्र जानना चाहिए । तथा जो शास्त्र इसलोक परलोक, आत्मा, पुण्य, पाप, स्वर्ग, नरक आदिका ही अभाव बतलाते हैं, वे भी कुशास्त्र हैं । ऐसे कुशास्त्रोंका पढ़ना-पढ़ाना, सुनना-सुनाना, उपदेश देना आदि सब 'गृहीत मिथ्याज्ञान' माना गया है । इस मिथ्याज्ञानके प्रभाव से अनेकों जन्मोंमें करोड़ों कष्ट सहन करने पड़ते हैं, इसलिए इन शास्त्रों के पठन-पाठनसे दूर ही रहना भव्य जीवोंके लिए श्रेयस्कर है । अब आगे मिथ्याचारित्रका स्वरूप कहते हैं जो ख्याति लाभ पूजादि चाह, धरि करन विविध विध देह दाह । श्राम अनात्म के ज्ञान हीन, जे जे करनी तन करन छीन ।। १४ ते सब मिथ्याचारित्र त्याग, अब तमके हित पंथ लाग । जगजाल भ्रमणको देहु त्याग, अब दौलत निजतम सुपाग १५ अर्थ - जो पुरुष आत्मा अर्थात् 'स्व' और अनात्मा अर्थात् 'पर' के ज्ञानसे रहित होकर तथा अपनी ख्याति यशः कीर्त्ति
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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