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________________ छहढाला जे क्रिया तिन्हें जानहु कुधर्म, तिन सरधै जीव लहै अशर्म। या कू गृहीत मिथ्यात्व जान, अब सुन गृहीत जो है अजान॥१२ ___ अर्थ-कुगुरु, कुदेव और कुधर्म की सेवा चिर-कालके लिए दर्शनमोहनीय कर्मको पुष्ट करती है, अर्थात् कुगुरु, कुदेव आदिकी सेवा-उपासना करना ही गृहीत मिथ्यादर्शन है। अब आगे इन तीनोंका क्रमशः स्वरूप कहते हैं जो अन्तरंगमें राग-द्वेष, मोह आदिको धारण करते हैं और बहिरंगमें धन, वस्त्र आदि परिग्रहसे संयुक्त हैं तथा जो अपना महंतभाव प्रकट करनेके लिए जटा-जट धारण करते हैं, शरीर को भस्म रमाते हैं, नाना प्रकारके तिलक-मुद्रा आदि लगाते हैं, उन्हें कुगुरु जानना चाहिए। ऐसे कुगुरु संसाररूपी समुद्रसे पार उतारनेके लिए पत्थरकी नावके समान हैं। जिस प्रकार पत्थरकी नाव तैरकर न तो स्वयं पार हो सकती है, और न दूसरे बैठनेवालोंको पार लगा सकती है, इसी प्रकार ये कुगुरु न तो संसार-समुद्रसे स्वयं पार हो सकते हैं, और न अपने भक्तोंको ही पार लगा सकते हैं। अब आगे कुदेवका स्वरूप कहते हैं :___ जो देवता राग-द्वषरूपी मैलसे मलिन हैं, स्त्रियोंको साथ लिये फिरते हैं। गदा, शंख, चक्र आदि नाना प्रकारके अस्त्रशस्त्रोंको धारण करते हैं, उन्हें कुदेव जानना चाहिए। जो शठपुरुष ऐसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि कुदेवोंकी सेवा-उपासना आदि करता है, उसके संसार-परिभ्रमणका अन्त कभी नहीं
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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