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________________ दूसरी ढाल . ४३ मिथ्यात्व कर्मके उदयसे यह जीव ऊपर बतलाये गये सातों तत्वोंका विपरीत श्रद्धान करता है। इनमेंसे जीव तत्वका विपरीत श्रद्धान किस प्रकार करता है, यह ग्रन्थकारके शब्दोंमें ऊपर बतला ही आये हैं। अब आगे शेष तत्वोंका विपरीत श्रद्धान मिथ्यादृष्टि जीव किस प्रकार करता है, यह बतलाने के लिए ग्रन्थकार उत्तर प्रबन्ध कहते हैं:तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान। रागादि प्रगट ये दुःख दैन, तिनही को सेवत गिनत चैन॥५ शुभ अशुभ बंधके फलमंझार, रति अरति करै निज पद विसार । आतम-हित-हेतु विराग ज्ञान, ते लखें आपकू कष्ट दान ॥६ रोकी न चाह निज शक्ति खोय, शिवरूप निराकुलता न जोय । याही प्रतीति जुत कछुक ज्ञान, सो दुखदायक अज्ञान जान ॥६ अर्थ-मिथ्या दर्शनके प्रभावसे यह जीव शरीरके जन्मको अपना जन्म जानता है और शरीरके नाशको अपना मरण मानता है, यह अजीव तत्वका विपरीत श्रद्धान है, क्योंकि जन्म मरण शरीर जो कि अजीव है के होता है, आत्माके नहीं। जिस पदार्थका जैसा स्वरूप है, उसे वैसा न मानना ही उसका विपरीत श्रद्धान कहलाता है। जन्म-मरण अचेतन शरीरके होते हैं, न कि चेतन जीवके । इस प्रकार यह अजीव तत्वके विपरीत श्रद्धान का वर्णन हुआ।
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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