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________________ ३५ प्रथम ढाल मनुष्य या तिर्यंच योनिमें उत्पन्न होता है तो वह विलाप करता कहता है कि हाय, हाय, कृमि कुलसे भरे हुए, पल, रुधिर आदिसे ब्याप्त अत्यन्त दुर्गन्धित गर्भ में मैं नौ मास तक कैसे रहूँगा? मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, किसकी शरण पकहूँ ? हाय, मेरा कोई ऐसा बंधु नहीं है जो मुझे यहाँसे गिरनेसे बचा सके । वज्र जैसे आयुध को धारण करने वाला, ऐरावत हाथी की सवारी करने वाला देवोंका स्वामी इन्द्र भी -- जिसकी कि मैंने जीवनभर सेवा की है— मुझे बचानेके लिए समर्थ नहीं है । इस प्रकार नाना भांतिसे विलाप करता हुआ वह कहता है कि यदि यहाँसे मेरा मरण होता है, तो भले ही होवे, पर मनुष्य तिर्यंचोंके उस नरकावासके तुल्य गर्भ में निवास न करना पड़े, भले ही मेरी उत्पत्ति एकेन्द्रियोंमें हो जाय । ऐसा विचार जब बहुत समय तक हृदयमें हिलोरें मारता है, तब वह एकेन्द्रियों की का बंध कर लेता है, क्योंकि भुज्यमान आयुके छह मास अवशिष्ट रहने पर ही उनकी पर भव-सम्बन्धी आयुके बंधनेका अवसर आता है | इस प्रकार आगामी भवकी आयुको बांधकर और वर्तमान पर्याय की आयुके पूरा हो जाने पर वह मरकर निदानके वशसे एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हो जाता है । शंका- क्या सभी मिध्यादृष्टि देव मरकर एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं ? समाधान- नहीं, किन्तु भवनत्रिक और दूसरे स्वर्ग तकके. मिथ्यादृष्टि देव मरकर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हो सकते हैं।
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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