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________________ छठवीं ढाल १६१ कर देते हैं, उस समय वे अपने आत्मामें, अपने आत्माके लिए, आत्माके द्वारा, अात्माको अपने आप ग्रहण कर लेते है अर्थात् जान लेते हैं, तब उस ध्यानकी निश्चय दशामें गुणगुणी, ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेयके भीतर कुछ भी भेद नहीं रहता है, किन्तु एक अभेद रूप दशा प्रगट हो जाती है । __ भावार्थ-जिस समय कोई साधक ध्यानका अवलम्बन लेकर भेद-विज्ञानके द्वारा अनादि कालसे लगे हुए द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मसे अपने आपको भिन्न समझ लेता है, उस समय वह अपनी आत्माको परकी अपेक्षाके विना स्वयं ही जान लेता है और उसे जानकर उसमें इस प्रकार तल्लीन हो जाता कि 'ये ज्ञानादिक गुण है' और मैं इनका धारण करने वाला गुणी हूँ, यह ज्ञान है, इसके द्वारा मैं इन ज्ञेय-पदार्थोंको जानता हूँ इस प्रकारके ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेयका कोई भेद नहीं रहता किन्तु एक अभिन्न दशा प्रकट हो जाती है, जो कि स्वयं ही अनुभवगम्य है। आगे इसी स्वरूपाचरणरूप ध्यान-अवस्थाका और भी वर्णन करते हैं:जहं ध्यान ध्याता ध्येयको न विकल्प वच भेद न जहां, चिद्भाव कर्म, चिदेश करता, चेतना किरिया तहां । तीनों अभिन्न अखिन्न शुध उपयोग की निश्चल दशा, प्रगटी जहां दृग-ज्ञान-व्रत ये तीनधा एकै लसा ॥६॥
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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