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________________ १८६ छहढाला समस्त प्रवृत्तिको रोककर किसी एक सनसे स्थिर रहना सो काय गुप्ति है । इस प्रकार मन, वचन और काय की समस्त प्रवृत्तियां ध्यान अवस्थामें ही एक अन्तर्मुहूर्त्तमात्रके लिए रोकी जा सकती हैं, अतएव ग्रन्थकारने बड़े सुन्दर शब्दोंमें उसी ध्यानअवस्थाका वर्णन करते हुए कहा है कि ध्यान अवस्था में साधु अपने मन, वचन, कायकी क्रियाओं को रोककर इस प्रकार सुस्थिर हो जाते हैं कि हरिण आदि जंगली जानवर उन्हें पाषाणकी मूर्ति समझकर उनसे अपने शरीर की खुजलीको खुजलाने लगते हैं। साधुओं की ऐसी शान्त और स्थिर दशा सचमुच प्रशंसनीय एवं वन्दनीय है । सकलचारित्रके धारक मुनियोंके तीन भेद होते हैं - आचार्य उपाध्याय और साधु | ऊपर जो अटठाईस मूलगुण बताये गये हैं, उनका पालन तीनों ही परमेष्ठियों को अत्यन्त आवश्यक बतलाया गया है। इसके अतिरिक्त उपाध्यायको पच्चीस मूलगुण और आचार्यको छत्तीस मूलगुण और भी अधिक धारण करने पड़ते हैं, जिनका ग्रन्थकारने प्रस्तुत प्रकरण में वर्णन नहीं किया है सो अन्य ग्रन्थोंसे जानना चाहिए। किन्तु आचार्यपरमेष्ठीके छत्तीस मूलगुणों में जो बारह तप और दश धर्मों का समावेश है, उनका धारण करना भी प्रत्येक साधुके लिए अत्यावश्यक माना गया है, अतएव ग्रन्थकार उसका वर्णन आगे पद्य द्वारा करते हैं, क्योंकि उसके बिना सकलसंयम अधूरा ही रह जाता है।
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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