SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८२ छहढाला रस रूप गंध तथा फरस अरु शब्द शुभ असुहावने, तिनमें न राग विरोध पंचेन्द्रिय-जयन पद पावने ॥४॥ अर्थ-वे मुनिराज अपने मन वचन और कायको भली प्रकार निरोध करके सुस्थिर हो इस प्रकार आत्माका ध्यान करते हैं कि जंगलके हरिण उनकी सुस्थिर, अचल, शान्त मुद्राको देख कर और उन्हें पाषाण की मूर्ति समझ कर अपने शरीरकी खाज खुजलाते हैं । यह तीन गुप्तियोंका वर्णन हुआ। पाँचों इद्रियोंके विषयभूत स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द यदि शुभ प्राप्त हों, तो वे उनमें रमा नहीं करते और यदि अशुभ प्राप्त हों, तो वे उनमें विरोध या द्वष नहीं करते और इस प्रकार वे पंचेन्द्रियविजयी पदको प्राप्त करते हैं। - अब छह आवश्यक और शेष सात मूल गुणोंका वर्णन करते हैं:समता सम्हारै थुति उचारें बन्दना जिनदेवको, नित करें श्रत-रति, करैं प्रतिक्रम, तसें तन अहमेवको। जिनके न न्हौन, न दन्त-धोवन, लेशअम्बर आवरन, भूमाहि पिछली रयनमें कछु शयन एकाशन करन ॥५॥ इक बार दिनमें लें अहार खड़े अलप निज पानमें, कचलोंच करत न डरत परिषह सो, लगे निज ध्यानमें ।
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy