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________________ प्रथम ढाल बध बंधन आदिक दुख घने, कोटि जीभते जात न भने । अतिसंक्लेश भावते मर्यो, धोर शुभ्र सागर में पर्यों* ॥६॥ अर्थ-विकलेन्द्रिय पयोयोंसे निकलकर कभी यह जीव पंचेन्द्रिय पशु भी हुआ, तो मनके बिना बिलकुल अज्ञानी हुआ और यदि कभी सैनी भी हुआ, तो सिंह आदि क्रूर जीवोंमें उत्पन्न हुआ, जहां सैकड़ों निर्बलपशुओंको मारकर खागया ॥७॥ ___ कभी यह जीव स्वयं निर्बल हुआ तो, बलवान् जीवोंके द्वारा अत्यन्त दीनतापूर्वक खाया गया। छेदा जाना, भेदा जाना भूख, प्यास, बोझा ढोना, ठंड, गर्मीका सहना, वध, बंधनको प्राप्त होना इत्यादि अख्य दुःखोंको यह जीव तियचयोनिमें सहता है जो कि करोड़ों जिह्वाओंके द्वारा भी नहीं कहे जा सकते हैं। इन नाना प्रकारके दुःखोंको भोगते हुए यह जीव जब अत्यन्त संक्लेश भावसे मरता है तो घोर नरक-रूपी समुद्रमें जा गिरता है ।।८, ॥ विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय तिर्यच जीव दो प्रकारके होते हैं—एक .. सैनी, दूसरे असैनी। जिनके मन होता है, उन्हें सैनी कहते हैं, सैनीके दूसरे नाम संज्ञी और समनस्क भी हैं। जिनके मन नहीं होता है, उन्हें असैनी, असंज्ञी या अमनस्क कहते हैं। ये * सो तिव्वअसुहलेसो गरये णिवडेइ दुक्खदे भीमे। तत्थवि दुक्खं भुजदि सारीरं माणसं पउरं ॥२८८|| .. . -स्वामिका०
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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