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________________ छहढाला चाहिये ? देखो, जो लक्ष्मी बड़े पुण्यशाली चक्रवर्ती आदि महापुरुषोंके भी शाश्वत नहीं रही, तो वह इतर हीन-पुण्य वाले लोगोंके कैसे स्थिर रह सकेगी, इसलिये सम्पत्तिके वियोगमें खेद क्यों करना ? इस मोहके माहात्म्यपर अश्चिर्य है कि यह जीवसंसारकी सभी कुछ वस्तुओंको, धन, यौवन और जीवनतकको जलके बबूलेके समान क्षण-भंगुर देखते हुए भी उन्हें नित्य मान कर उनमें मोहित हो रहा है। इसलिये हे भज्यजीवो ! अपने महामोहको छोड़ कर और संसारके समस्त संयोगों को वियोग संयुक्त ही निश्चय करो संसारकी कोई वस्तु स्थिर या नित्य नहीं है, अतएव स्थायी आत्मपदमें ही अपनी बुद्धिको लगाओक । ऐसा विचार करना सो अनित्य भावना है। इस प्रकार के विचार करनेसे संसारके किसी भी पदार्थमें भोग कर छोड़े हुए उच्छिष्ट "जा सासया ण लच्छी चक्कहराणं पि पुण्णवंताणं । . सा कि बंधेइ रई इयरजणाणं अपुरणाण ॥१०॥ स्वामिका * जलबुव्वयसारिच्छं धणजुव्वणजीवियं पिपेच्छंता। मएणति तो वि णिच्चं अइवलियो मोहमाहप्पो ॥२१॥ चइऊण महामोहं विसए सुणिऊण भंगुरे सव्वे । सिव्विसयं कुणह मणं जेण सुई उत्तम लहइ ||२२|| .... . . . स्वामिका
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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