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________________ चौथी ढाल १२१: आज्ञा उस कुए से पानी और जमीनसे मिट्टी तक भी न लेगा, जिस पर कि किसी एक ही व्यक्ति का अधिकार या प्रतिबन्ध हो। इसी प्रकार वह किसी की गिरी, पड़ा, भूली या रखी हुई बस्तुको भी न स्वयं लेगा, न उठा कर दूसरे किसी को देगा * । ४ - ब्रह्मचर्याशुव्रत - अपनी स्त्रीके सिवाय संसार की समस्त स्त्रियों से विरक्त रहना, उनसे किसी प्रकारके विषय-भोगकी इच्छा नहीं करना, न हंसी-मजाक करना सो ब्रह्मचर्य - अणुव्रत है । इस व्रतका धारक श्रावक परस्त्री सेवनमें महा पाप और घोर अन्याय समझता है अतएव वह न तो स्वयं किसी अन्य स्त्रीके पास जाता है और न किसी दूसरे पुरुषको भिजवाता है । इसी व्रत का दूसरा नाम स्व- दार-सन्तोष भी है । ५ परिग्रहपरिमाणाव्रत- अपनी आवश्यकता और सामर्थ्यको देख कर धन, धान्य आदि परिग्रहका परिमाण करके अल्प परि ग्रह रखना और उसके सिवाय शेष परिग्रहमें निःस्पृहता रखना, अर्थात् अपनी इच्छाओं को अपने अधीन कर लेना उसे परिग्रह * निहितं वा पतितं वा सुविस्मृतं वा परस्य भविसृष्टम् । J न हरति यन्न च दत्ते तदकृशचौर्यादुपारम् || रत्नकरं श्रावकाचार न तु परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत् । सा परदारनिवृत्तिः स्वदार सन्तोषनामापि ॥ रत्नकरंड श्रावकाचार
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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