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________________ ११४ छहढाला तो नीरोग शरीर का मिलना अत्यन्त कठिन है, यदि भाग्यवश वह भी मिल गया तो धर्मबुद्धि का होना बहुत दुर्लभ है, क्यों अनादि कालके संस्कार वंश जोवकी प्रवृत्ति स्वभावतः विषय भोगों की ओर रहती है। यदि किसी सुयोगसे धर्मबुद्धि भी जागृति हुई तो वह संसार में फंसे हुए नानामत-मतान्तरोंमें उलझकर मिध्यात्व का ही पोषण करके संसार वास के बढ़ाने में ही लग जाता है । अतः सच्चे धर्म की प्राप्तिका होना अत्यन्त कठिन माना गया है। इसी बातको ध्यान में रखकर ग्रन्थकार कहते हैं कि यह मनुष्य पर्याय, उसमें भी उत्तम श्रावककुल और उसमें भी जिनवाणी का सुनना उत्तरोत्तर अत्यन्त दुर्लभ है । इन्हें पाकर भी जो कि आज दैववशात् प्राप्त हुई हैं, यदि हमने उनसे लाभ नहीं उठाया, सच्चे तत्वों का अभ्यास कर क्षत्रिय धर्म को धारण नहीं किया और यह नरभव योंही व्यर्थ खोदिया तो फिर इसका पुनः प्राप्त होना ऐसा कठिन है, जैसाकि समुद्र में गिरे हुए किसी रत्न का पुनः मिलना अत्यन्त कठिन होता है । इस सबके कहने का सार यह है कि मनुष्य जीवनके एक एक क्षणकी अत्यन्त सावधानी पूर्वक रक्षा करना चाहिए और उसे रत्नत्रयकी आराधना में लगाकर सफल करना चाहिए । आगे ग्रन्थकार जीवको संबोधित करते हुए कहते हैं कि संसारकी कोई भी वस्तु आत्माके काज आने वाली नहीं है, एक सच्चा ज्ञानही काम आयेगा । अतः उसे पानेकेलिए जैसे बने, तैसे प्रयत्न करो। सुनिये, ग्रन्थकर कहते हैं:
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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