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________________ ११० छहढाला मुनिव्रत धार अनन्तवार ग्रीवक उपजायो, पै निज प्रातमज्ञान बिना सुखलेश न पायो॥४॥ अर्थ-अज्ञानी जीव आत्मज्ञानके बिना करोड़ों जन्मोंमें तप करके जितने कर्मोंकी निर्जरा करता है उतने कर्मोंकी निर्जरा ज्ञानी पुरुषके मन, वचन, कायको वश में करने से एक क्षण भर में अनायास सहज ही हो जाती है। यह जीव मुनिव्रतको धारण कर अनन्तवार नव वेयक तक उत्पन्न होचुका है, तथापि अपनी आत्माके यथार्थ ज्ञानके बिना इसने लेशमात्र भी यथार्थ सुख नहीं पाया। ताते जिनवर-कथित तत्व अभ्यास करीजे, संशय, विभ्रम, मोह त्याग आपो लख लीजे । यह मानुष पर्याय, सुकुल सुनिवो जिनवानी, इह विध गये न मिलै सुमणि ज्यों उदधि समानी ॥५॥ अर्थ-इसलिए जिन भगवानके द्वारा कहे गये तत्वोंका अभ्यास करना चाहिए और संशय, विभ्रम, तथा अनध्यवसाय का त्याग कर आत्माके स्वरूपका अनुभव करना चाहिए। यह मनुष्य पर्याय, उत्तम कुल, जिनवाणीका सुनना, ये सब सुयोग यदि यों ही वृथा चले गये, तो वे समुद्रमें समा गये हुए उत्तम रत्नके समान फिर नहीं मिल सकेंगे। विशेषार्थ-ग्रन्थकार सम्यग्ज्ञानकी आराधनाके लिये उपदेश
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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