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________________ 2 ६७ तीसरी ढाल ही है । इस सम्यग्दर्शनके बिना समस्त क्रियाओंका करना केवल दुःख-दायक ही है । विशेषार्थ - यदि सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति के पश्चात् जीवके परभव सम्बन्धी आयु का बन्ध होता है, तो मनुष्य और देवायु का ही बन्ध होता है, इसलिए वह न किसी नरकमें जाता है और न किसी प्रकारके तिर्यंचोंमें ही पैदा होता है । किन्तु जिस जीवके सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके पूर्व ही नरक या तियंच आयुका बंध हो जाता है, तो उसे उस गतिमें तो नियमसे जानाही पड़ता है, परन्तु नरकमें वह पहले नरकसे नीचे नहीं जाता है और तिर्यंचों में भी वह भोग भूमि के असंख्यात वर्ष की आयु वाले पुरुषवेदी तिर्यंचोंमें ही जन्म लेता है, एकेन्द्रिय, विकलत्रय कर्म-भूमिके पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में नहीं । मनुष्य गतिमें यदि वह उत्पन्न हो, तो या तो भोगभूमिका पुरुषवेदी मनुष्य ही होगा, या कर्मभूमिका महान पराक्रमी, लोकातिशायी बल-वीर्यका धारक मानव-तिलक होगा * किन्तु दरिद्री, हीनांगी, विकलांगी, रोगी, शोकी और अल्पायु का धारक नहीं होगा । इसी प्रकार देवगतिमें भी भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और हीन जातिके कल्पवासियों में नहीं उत्पन्न होगा । इसका विस्तृत विवेचन पहले भी कर आये * प्रोजस्तेजोविद्या वीर्ययशोवृद्धि विजय विभवसनाथाः । महाकुला महार्थाः मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूताः || ३६ || रत्नक०
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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