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________________ ( य ) ६ बोल पृष्ठ ३८१ से ३८२ तक । २० बोला करी तीर्थङ्कर गोत्र बंधतो कह्यो ( ज्ञाता अ० ८) १० बोल पृष्ठ ३८२ से ३८४ तक। निरवद्य करणी सूं पुण्य नीपजे छे ( भ० श० ७ उ० ६) ११ बोल पृष्ठ ३८४ से ३८६ तक। आठुइ कर्म निपजवारी करणी (भग० श० ८ उ०६) १२ बोल पष्ठ ३८६ से ३६२ तक । धर्भरुचि नो कडुवो तुम्वो परठणो ( ज्ञाता भ० १६ ) १३ बोल पृष्ठ ३६२ से ३६४ तक । भगवन्ते सर्वानुभूति में प्रशंस्यो (भ० श० १५ ) भगवान् साधानें कह्यो (भ० श० १५) १४ बोल पृष्ठ ३६४ से ३६५ तक। जाज्ञा प्रमाणे चाले ते विनीत उत्त० अ० १ गा० २) इति जयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने निरवद्य क्रियाऽधिकारानुक्रमणिका समाप्ता । مصيم निर्ग्रन्थाहाराऽधिकारः। १ बोल पृष्ठ ३६६ से ३६७ तक । साधु-आहार. उपकरण आदिक भोगवे ते निर्जरा धर्म छै (भ० श० १ उ०१) २ बोल पृष्ठ ३६७ से ३६७ तक। ज्ञान. दर्शन. चरित्र वहवाने अर्थे आहार करणो कह्यो ( ज्ञाता अ०२) ३ बोल पष्ठ ३६८ से ३९८ तक। वर्ण रूप. वल विषय हेते आहार न करिवो (ज्ञातो अ०१८)
SR No.032041
Book TitleBhram Vidhvansanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherIsarchand Bikaner
Publication Year1924
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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