SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 487
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भ्रम विध्वंसनम् । जे भिक्खू उच्चार पासवरणं परिद्ववेत्ता कठेण वा कविलेण वा अंगुलियाए वा सिलागए वा पुच्छइ पुच्छंतं वा साइ जइ ॥ १६२॥ ४३० ( निशीथ उ०४ ) जे जे कोई साधु साध्वी. उ० बड़ी नीति पा० लघु नीति प० परिठवो नें. का करी. क० बांस नी खांपटी करो नं. अं० अंगुलिई करो वा. सि० अनेरा काष्ठ नी शलाका करी नें. पु० पूंछे वा पू० पूंछता ने अनुमोदे तो पूर्ववत् प्रायश्चित. अथ इहां उच्चार, पासवण परठी काष्ठादिके करी पूंछयां प्रायश्चित्त कह्यो । ते पिण उच्चार आश्री, पिण पासवण आश्री नहीं । तिम बाजार में उच्चार. पासवण परठ्यां प्रायश्चित्त कह्यो । ते पिण उच्चार आश्री छे, पासवण आश्री नहीं। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो । इति २ बोल सम्पूर्णा । तथा तिणहि उद्देश्ये एहवा पाठ कह्या—ते लिखिये छै । जे भिक्खू उच्चार पासवणं परिवेत्ता. णायमइ. गायमंत वा साइजइ ॥ १६३॥ जे भिक्खू उच्चार पासवणं परिद्ववेत्ता तत्थेव आयमंति आयमंतं वा साइज्जइ ॥ १६४॥ जे भिक्खू उच्चार पासवणं परिवेत्ता अदूरे आयमइ. अइदूरे आयमंतं वा साइजइ ॥ १६५॥ ( निशीथ उ०४ )
SR No.032041
Book TitleBhram Vidhvansanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherIsarchand Bikaner
Publication Year1924
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy