SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 482
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ काकी साधु अधिकारः । अथ इहां कह्यो–जे हूं राग द्वेष नें अभावे ज्ञानादि सहित एकलो विचरस्यूं । इम विचारि दीक्षा ले इहां पिण राग द्वेष नों भाव नथी ते माटे एकलो को । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो । इति १२ बोल सम्पूर्णा । तथा उत्तराध्ययन भ० १५ पिण राग द्वेष में अभावे एकलो विवरणो को ते पाठ लिखिये छै । असिप्प जीवी अहेि अमित्ते, जिइंदिए सव्व विप्प मुक्को । कसाई लहुप्प भक्खो, ४२५ चिच्चाहिं एक चरेस भिक्खू ॥ (उत्तराध्ययन अ० १५ ) ० चित्रकार नी कलाइ न जीवे. गृध्र पणा रहित अ० शत्रु मित्र नहीं है जेहने एहवो थको जि० जितेन्द्रिय स० सर्व वाह्य आभ्यन्तर परिग्रह थी मुकाणा है. अ० थोड़ी कषाय उत्कर्ष रहित. लघु आहारी. चि० छांडो न गृ० घर. ए० एकलो. राग द्वेष रहित. बिचरे. भि० साधु. अथ इहां . पिण कह्यो - घर छांडी राग द्वेष नें अभावे एकलो विचरे । इत्यादिक अनेक ठामे घणा साधां में रहिता पिण राग द्वेष नें अभावे भाव थी एकलो कह्यो । चेला न मिले तो ते साधु चेलां नें अभावे तथा राग द्वेव नें अभावे को बिच वूं को दीसे छै । पिण एकलो अव्यक्त रहे तिण नें साधु किम कहिए । तिवारे कोई कहे - जे ३ मनोरथ में चिन्तवे जे किवारे हूं एकलो थइ दश विध यति धर्मधारी विचरस्यूं इम क्यूं कह्यो । इम कहे तेहनों उत्तर ५४
SR No.032041
Book TitleBhram Vidhvansanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherIsarchand Bikaner
Publication Year1924
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy