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________________ पुण्याधिकारः । अथ इहां पिण कह्यो- जे अकृत पुण्य जीव संसार भमे । अकृत पुण्य ते श्रव निरोध रूप पवित्र अनुष्ठान न करे ते जीव संसार में रुले । तेहनी टीका में पिण इमहिज कह्यो छै ते टीका 1 - ३०३ "कृतपुण्या अविहिताश्रव निरोध लक्षण पवित्रानुष्ठाना" पहनों अर्थ - अकृत पुण्य ते न कीधो आश्रव निरोधक पवित्र अनुष्ठान, इहां पिण शुभ अनुष्ठान पुण्य ना हेतु नें पुण्य शब्दे करी ओलखायो छे । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो । इति ४ बोल सम्पूर्णा । तथा उत्तराध्ययन अ० ३ गा० १३ में एड्वो पाउ कह्यो छै । ते लिखिये छै । विगिंच कम्मुणोहेउं पाढ़वं सरीरं हिच्चा जसं संचिगु खंतिए उड्ढं पक्कमइ दिसं ॥१॥ ( उत्तराध्ययन ० ३ गा० १३ ) वि० त्यागी नें. क० कर्म ना हेतु मिथ्यात्व अबत. प्रमाद. कषाय. आदिक ने संयम तप विनय ते यशन हेतु ने. सं० संचय कर खं० क्षमा करी. पा० पृथ्वी री माटी सरीख औदारिक. स० शरीर में हि० छोड़ी ने उ० ऊर्ध्व ऊपर प० गमन करे है. हि० परलोक ने विषे. ज० अथ इहां पिण को- - यश नों संचय करे यश नों हेतु संयम तथा विनय तेहनें यश शब्दे करी ओलखायो छै । तिम पुण्य ना हेतु ने पुण्य शब्दे करी ओलखायो छै । पाठ में तो यश नो हेतु कह्यो नहीं, यश नों संचय करणो कह्यो । अनें साधु ने तो कीर्त्ति श्लाघा यश वांछणो तो ठाम २ सूत्र में वय, तो यश नों संचय कम करे । पिण यश ना हेतु नें यश शब्दे करी ओलखायो छै । डाहा वे तो विचारि जोइजो । इति ५ बोल सम्पूर्ण
SR No.032041
Book TitleBhram Vidhvansanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherIsarchand Bikaner
Publication Year1924
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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