SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रम विध्वंसनम् । जी० जीव. भ० हे भगवन् ! श्र० श्राहारिक शरीर प्रते णि० निपजावतो तो कियूं अधिकरण एप्रन गो० हे गोतम ! अ० अधिकरणी पिण. अ० अधिकरण पिण. से ० से. के० केहे थे. जा० यावत् श्र० अधिकरण पिण. गो० हे गोतम ! प० प्रमाद प्रते आश्रयी नें. जा० यावत् श्र० अधिकरण पिण. ए० एम. मनुष्य पिण जाणवो. १८४ अथ अठे पिण आहारिक लब्धि फोडवी नें आहारिक शरीर करे तिण नें प्रमाद आश्री अधिकरण कह्यो । तो ए लब्धि फोड़े ते कार्य केवली री आज्ञा बाहिर कहीजे के आज्ञा माहि कहीजे । बिवेक लोचने करि उत्तम जीव विचारे । श्री भगवन्ते तो आहारिक लब्धि फोडे ते प्रमाद कह्यो ते प्रमाद तो अशुभ योग आव छैणि धर्म नहीं। डाहा हुये तो विचारि जोइजो । इति ३ बोल सम्पूर्ण । वली ए लब्धि फोड्यां पांच क्रिया लागती कही. ते पांच क्रिया लागे ते कार्य में धर्म नहीं । वली लब्धि फोडे तिण ने मायी सकपायी कह्यो छै ते पाठ लिखिये छै । से माइ विकुव्वति यो अमाइ विकुव्वति । ! किं माई विम्बइ. अमाइ विकुव्वइ गो० ( भगयती श० ३ उ०४ ) से० ते ० हे भगवन् ! कि स्यूं मायी वैक्रिय रूप को य० के अमायी वि० वैकिय रूप करे. गो० हे गोतम ! मायी विकू खो० पि श्रमायी न विकू श्रप्रमत्त गुणठाणा रो धणी । अथ अठे वैकिय लब्धि फोडे सिंण नें मायी कह्यो । ते माटे सावद्य कार्य में धर्म नहीं । वली लब्धि फोडे ते बिना आलोयां मरे तो विराधक को छै । ते पाठ लिखिये छै ।
SR No.032041
Book TitleBhram Vidhvansanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherIsarchand Bikaner
Publication Year1924
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy