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________________ ( ११- > समय पाकर किसी साधु के पूठे में रक्खी हुई भ्रम विध्वंसन की प्रति को रात में चुरा ले गया और जैसे तैसे छपा डाला । पाठकों को यह भी ज्ञात होना चाहिये । कि वह भ्रम विध्वंसन जिसको कि वह चुरा ले गया था खरड़ा मात्र ही था कहीं कटी हुई पंक्तियां थीं कहीं पृष्टों के अङ्क भी क्रम पूर्वक नहीं थे। कहीं बीच का पाठ पत्त्रों के किनारों पर लिखा हुआ था । अतः उसने वह छपाया तो सही परन्तु अण्डवण्ड छपा डाला कई बोल आगे पीछे कर दिये कहीं किनारों पर लिखा हुआ छपाना ही छोड़ दिया । इतने पर भी फिर प्रूफ नाम मात्र भी नहीं देखा अतः ग्रन्थ एक विरूपता में परिणत हो गया। उस पहिले छपे हुए और इस द्वितीय वार छपे हुए भ्रम विध्वंसन में जहां कहीं जो आपको परिवर्त्तन मालूम होगा वह परिवर्त्तन नहीं है किन्तु जयाचार्य की हस्तलिखित प्रति में से धार धार कर वह ठीक किया हुआ है। साखों में जो भूलें रह गई हैं उनको शुद्ध करने के लिये शुद्धाशुद्धि पत्र लगा दिया है। सो पाठकों का पुस्तक पढ़ने से पहिले यह कर्त्तव्य होगा कि साखों को शुद्ध कर लें । पाठ में भी नये टाइप के योग से कहीं २ अक्षर रह गये हैं उनको पाठक मूल सूत्रों में देख सकते हैं। नोट- भूमिका में भगवान् से आदि ले श्री कालूगणी तक की जो पट्ट परम्परा बांधी है उसमें वङ्ग चूलिया का भी प्रमाण समझना चाहिये । पाठकों को वस इतना ही सामाजिक दिग्दर्शन करा कर अपनी लेखनी को विश्राम भवन में भेजा जाता है । और आशा की जाती है कि आबाल वृद्ध सब ही इस ग्रन्थ को पढ़कर आशातीत फल को प्राप्त करेंगे । इति शम् भवदीय "ईसरचन्द " चौपड़ा ।
SR No.032041
Book TitleBhram Vidhvansanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherIsarchand Bikaner
Publication Year1924
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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