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________________ दानाऽधिकारः । विधि दिखा आहार लेवा नी ते पिए पारणे जेहो कल्पे तिम रीति देखाड़ी एह निविश्यमाण कपट्ठी प० परिहार विशुद्ध चरित्र नो ए विध. भि० साधुने क० कल्पै. श्रा० श्राचार्य. उ० उपाध्याय त० तेणें तप करिat माड्यो ते दिवस में विषे. ए० एक घर ने विषे पि० आहार ने द० देवरावो कल्पे ते विधि देखाड़ है । ते ते दिन उपरान्त नो० न कल्पे से० तेहने अशनादिक ४ दा० देवराय वो घणीवार पिए देवरावो न कल्यै क० कल्पै से० तेहने. ऋ० अनेरी वे० व्याचच करवा ग्लामना पायें ते माटे. तं० तिमज छै तिम कहे है. उ० काउसग्ग ऊभो करियो नि० वैसा वो सु० सूवावा. उ० बड़ी नीति पा० लघु नीति खे० खेल गलानों वलखो. ज० शरीर नो मल सं० संत्राण नासिका नो मैल वि० निवर्त्ताविवो वि० उच्चारादिके शरीर खरड्यो हुवे ते शुद्ध कराaat असजाय amraवा श्र० वली ए० इम ज० जाणे. हिवे बली इम करतों ने शरीर कामना पावे. तिवारे गुरु आदिक वैयावच कही. ते रोति करे. जाखो जे छि० कोई यावत जावतो नथी. एहवा निग्रंथ मार्ग ने विषे ते चरित्रियो ग्रा० आतंक रोगे करी. भूख पीड़ितो हुवे. पि० तृषा व्याप्त तपस्वी: दु० दुर्बल कि० किलामना पासी सु० मूर्च्छित नि० निर्बल पी. प० भूख लागी ए० इम एहवे. अवसर. से० ते कल्पे तेहने प्रशनादिक ४ एकवार आणी आपको. To aणीवार आपको । १०१ अथ अठे कह्यो । जे अभिग्रह धारी परिहार कल्पस्थित साधु ने पिण तेणेज दिने स्थविर साथै जाइ आहार दिवावे उपरान्त न दिवावे । अनेरी व्यावच तेहनें वीजा साधु करे । अनें भूख तृबाइ कारणे अशनादिक पिण ते अभिग्रह धारी अनेरा साधु देवे इम कह्यो । अनें “श्रावक" ने तो कारण पड्यां पिण साधु अशनादिक देवे नहीं, दिवावे नहीं । ते माटे जिन कल्पी स्थविर कल्पी नों न्याय में जिमाव्यां ऊपर न मिले। वली जिन कल्पी साधु स्थविर कल्पी ने अशनादिक देवे नहीं परं देतां नें अनुमोदना तो करे छे। अने श्रावक नें तो साधु आहार देवे नहीं दिवावे नहीं । देतां ने अनुमोदे पिण नहीं । ते माटे इहां जिन कल्प स्थविर कल्पी से न्याय मिले नहीं । अनें जिन कल्पी साधु तो विशेष धर्म करवा में अशुभ कर्म खपावां ने अर्थे शुभ योगराई त्याग कीधा ते किण नें ई दीक्षा देवे नहीं बखाण करे नहीं । अनेरा साधु नी व्यावच करे नहीं । श्रावक संथारो करावे 4 नहीं fपण और साधु ए कार्य करे छै । त्यांरी अनुमोदना करे छै। अनुमोदना रा त्याग नथी कीधा । अनें श्रावक ने आहार देवे । तेहनी अनुमोदना करवा रा 1 ई साधु रे त्याग है | अनें जिन कल्पी निरवद्य योग रूध्यां ते विशेष गुण रे अर्थे पिण सावद्य जाणी त्याग्या नथी । अनें श्रावक ने देवा रा साधां त्याग कीधा, ते सावध वाणी ने विविधे २ त्याग कीधा छै । घर छोड़ी दीक्षा लोधी तिण दिन
SR No.032041
Book TitleBhram Vidhvansanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherIsarchand Bikaner
Publication Year1924
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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