SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ atarsfधकारः । है. अथवा धर्म ने रागे रंगाणा है ध० धर्मश्रुत चारित्ररूप ने विषे प्रमोद सहित प्रचार है जेहनों. ध० धर्म चारित्र ने अखंड पाल वे सूत्र में आराधव ज वृत्ति छे आजीविका कल्प करे है । सु० भलो शील आवार है जेहनों सु० भला व्रत है सु० आहलाद हर्ष सहित वित्त साधु नें विषे जेहना सा० साधु ना समीपवर्ती ए० एकैक प्राणी जीव इन्द्रियादिक नों प्रतिपात हणवो हकी अतिशय सू विरम्या निवृत्या विरक्त हुआ है । ० जीवे ज्यां लगे. एकेक प्राणी जीव पृथिव्यादिकथकी निवृत्या न थी. ए० इस मृषावाद श्रदत्तादान मैथुन परिग्रह एक देश थकी निवृत्या इत्यादिकमूर्च्छा कर्म लागा थी निरृत्या ए० एकैक झूठ चोरी मैथुन परिग्रह द्रव्य भाव मूच्र्छा की निवृत्या न थी. ए० एकैक क्रोध थकी निवृत्या एकैक क्रोध थकी निवृत्या न थी, Tohara fया एकेक मान थी न निवृत्या ए० एकेक माया थी निवृत्या एकेक थी ननित्या एकैक लोभ थी निवृत्या एकैक लोभ थी न निवृत्या पे० एकैक प्रेम राग थी निवृत्या एकेक न थी निवृत्या दो० एकैक द्वेष थकी निवृत्या एकेक थकी न निवृत्या क० एकेक कलह थी निवृत्या एकेक थी न निवृत्या श्र० एकेक अभ्याख्यान थी निवृत्या एकैक थी न निवृत्या पे० एकेक पंचाडी थी निवृत्या एकेक थी न निवृत्या एकेक पारका अपवाद थी निवृत्या एकैक थी न निवृत्या एकेक रति अरति यो निया एकेक थी न निवृत्या मा० एकैक माया मृषा थी निवृत्या एकेक थो न निवृत्या एकैक मिथ्या दर्शन शल्य थी निवृत्या है जा० जीवे ज्यां लगेएक मिथ्यात्व दर्शन थकी न निवृत्या ए० एकैक श्रारम्भ जीवनों उपद्रव हणवो समारंभ ते उपद्रव्यादिक कार्य ने विषे प्रवर्त्त वो ० अतिशय सूं प० निवृत्या है. ए० एकैक आरम्भ समारम्भ थकी. o निवृत्या न थी. एकैक करिवो कराववी ते अनेरा पाहे तेहथी. प० निवृत्या छ. जा० जीव ज्यां लागे. ए० एकैक करिवो कॅराववो व्यापारादिक तेह थकी निवृत्या न थी. ए० एकैक पचिव पचाविव ने रा पाहे तेह थी निवृत्या है जा० जीवे ज्यां लगे प० एकैक पचिवो पोते चाविवो अनेरा पाहे अन्नादिक तेह थकी निवृत्या न थी. एकेक को० कूटण पोटण ताडन तर्जन वध वंधन परिकुश ते वाधा नो उपजावो ते थी निवृत्या जा० जीवे ज्यां लगे. एकेक थी निवृत्या नथी. एक स्नान उगणो चोपड वाना नो पूरवो वकानी करवो विलेपन अगर माल्य फूल अलङ्कार आभरणादिक तेह थकी प० निवृत्या जा० जीबे ज्यां लागे. एकैक स्नानादिक पूर्वे कझा तेह की निवृत्या न थी । जे काँई वली अनेराई अनेक प्रकार तेहवा पुर्वोक्त सा० सावध पा योग मन बचन काया रा उ० माया प्रयोजन कषाय प्रत्यय एहवा क० कर्म ना व्यापार प० पर अनेरा जीव ने प० परिताप ना क० करण हार. क० करीजे निपजावे. तं० तेह थकी निश्चय प० एकैक की निवत्या . जा० जीवे ज्यां लगे. ए० एकेक सावद्य योग थकी. अ० निवृत्या नथी. ० है . ० श्रमण साधु ना उपासक सेवक एहवा श्रावक. भ० कहिये | ६१ अथ अठे श्रावक रा व्रत अव्रत जुदा जुदा कह्या । मोटा जीव हणवारा मोटा ठरा मोटी चोरी मिथुन परिग्रह री मर्यादा उपरान्त त्याग कीधो तो
SR No.032041
Book TitleBhram Vidhvansanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherIsarchand Bikaner
Publication Year1924
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy