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________________ दानाऽधिकारः से० ते मुंड थई. जा० यावत्. अ० अथ हिवे अ० अवर अनेरी. च० चउथी सुखशय्या. ० लेईने त ते साधु ने ए० इम मनमांहि भ० हुई ज० जो ता० प्रथम अ० अरिहन्त भ० भगवन्त ह० शोकने प्रभावे हरण्यानी परे हर्ष्या. अ० ज्वरादिक वर्जित ब० बलवन्त क= परवडू शरीर अ० अनशनादिक तप मांहिलू अनेरू शरीर उ० अनशादिक दोष रहित युक्त. क मंगलीक रूप. वि० घणा दिन नो. प० अति हि संयम सहित प० चादर पण पत्रिज्या म० अत्यन्त शक्ति युक्त पणे ऋद्धि नो करणहार क० मोक्ष ना साधवा थी कर्मज्ञय नुकरणहार त तप कर्म तर क्रिया प० पड़िवज्जै सेवे । किं० प्रश्ने अंग ते आमन्त्रणे क. पु० वल पूर्वोक्तार्थ नू विलक्षण पणू दिखाड़वाने अथे. अ० हूँ. ते लोव ब्रह्मवर्यादिके. उ० श्रायुषो उपक्रमिये उलंघईये एणे करी ते दिक नी वेदना स्वभावे उपजे नो० नहीं. सं० सन्मुख पणे करी जिम साहो थाइ ने लेवे तिमि वेदना थकी भाजू नहीं ख० कीपरहित प्रदीनपणे खमू. ० ० जे उदेरी लीजिये उपक्रम ज्वरातिसारासुट वेरी ना थाट समूह पहासू शब्द सर्व एकार्थज है । म० मुझ ने अभ्युपगम की लोचादिक नी उ० उपक्रम की ज्वरादिक नी वेदना स सम्यक् प्रकारे अणसहितां ने. अ० अणखमता ने. अ० दोन पणे मतां ने. अ० अण अहियासताने किं० वितर्क ने श्रर्थे क० हुई. ए० एकान्त. सो० सर्वथा मुझ ने पा० पाप कर्म क० हुइ एतलो जो तीर्थंकर सरीखा पुरुष तपादिक नो कष्ट सहै तो हूँ अभीवगमिया ने उवक्कमिया बेदना किम न सहूं जो न सहूं तो एकान्त पाप कर्म लगे अनें जो स० मुझ ने छा० ब्रह्मचर्यादिक ना. वा० तायत. स० सम्यक प्रकारे स० सहतांकां जाव ० अहियासतां थकां किं वितर्क ने थे. ए० एकान्त. सो० ते मुझ ने निर्जरा क० थाई । ५७ अथ अठे इम को - जे साधु ने कष्ट उपनें इम विचारे, जे अरिहन्त भगवन्त निरोगी काया राणी कर्म खपावा भणी उदेरी ने तप करै छै । सो हूं लोचब्रह्मचर्यादिक नी तथा रोगादिक नी बेदना किम न सहूं । एतले प बेदना सम भाव अणसहितां मुझ ने एकान्त पाप कर्म हुई । अनें समभावे बेदना सहिताँ 'मुझ ने एकान्त निर्जरा हुई । 'इहां साधु ने पिण बेदना अणसहिवे एकान्त पाप कह्यो । जे एकान्त पाप मिथ्यात्व ने कहै छै तो साधु नें तो मिथ्यात्व छै इज नथी । अनें बेदना अणसहिवे एकान्त पाप कह्यो छै । ते माटे एकान्त पाप ने मिथ्यात्व इज कहै छे । ते झूठा छे । इहां पाप रो नाम इज एकान्त पाप छै एकान्त शब्द तो पापना विशेषण ने अर्थे को छै । जे साधु बेदना सहे तो एकान्त निर्जरा कही छै । इहां पिण एकान्त विशेषण ने अर्थे को छै । तथा भगवती श०८ उ०६ साधु ने निर्दोष दियां एकान्त निर्जरा कही छै । तथा भगवतौ श० १ उ० ८ अव्रती ८
SR No.032041
Book TitleBhram Vidhvansanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherIsarchand Bikaner
Publication Year1924
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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