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________________ ( 1 ) यही कहा कि महाराज ! यद्यपि हमारी शङ्काओं का पूर्ण समाधान नहीं हुआ है तथापि हम केवल आपके विलक्षण पाण्डित्य पर ही विश्वास रख कर आपके अनुगामी बनते हैं । इसी अवसर में असातावेदनीय कर्म के योग से भिक्षु स्वामी किसी ज्वर बिशेष से पीड़ित हुए और ऐसी अस्वस्थ व्यवस्था में आपके शुद्ध अध्यवसाय उत्पन्न होने लगे । भिक्षु स्वामी को महान् पश्चात्ताप हुआ और विचारा कि मैंने बहुत बुरा काम किया जो कि द्रव्यगुरु के कहने से श्रावकों के शुद्ध विचार को झूठा कर दिया । यदि मेरी मृत्यु हो जावे तो अन्तिम फल बहुत अनिष्ट होगा । द्रव्यगुरु परलोक में कदापि सहायक न होंगे। यदि मैं आरोग्य हो जाऊंगा तो अवश्य सत्य सिद्धान्त की स्थापना करूंगा। वं आरोग्य होनेपर अपने विचार को पवित्र करते हुए भिक्षु स्वामी ने श्रावकों से स्पष्ट कह दिया कि भ्रातृवरो ! आप लोगों का विचार ठीक है और हमारे द्रव्यगुरु केवल दुराग्रह करते हुए अनाचार सेवन करते हैं। ऐसा भिक्षु मुख से अमूल्य निर्णय सुन कर श्रावक लोक प्रसन्न हुए। और कहने लगे कि महाराज ! जैसी सत्य की आशा आप थी वैसी ही हुई । अथ चतुर्मास समाप्त होने पर राजनगर से विहार किया और मार्ग में छोटे २ ग्राम समझ कर दो साथ कर लिये और भिक्षु स्वामी ने वीरभाणजी से कहा कि यदि आप गुरु के समीप पहिले पहुंचे तो कोई इस विषय की बात नहीं करना नहीं तो गुरु एक साथ भड़क जायेंगे। मैं आकर विनय कला से समझाऊंगा और शुद्ध श्रद्धा धारण करानेका पूरा प्रयत्न करूंगा। वीरभाग जी ही आगे पहुंचे और रघुनाथ जी ने राज नगर के श्राबकों की शङ्का दूर होने के बारे में प्रश्न किया। वीरभाणजी ने वह सव वृतान्त कह सुनाया और कहा कि जो हम आधाकर्मी आहार स्थानकवास आदि अनाचार का सेवन करते हैं वह अशुद्ध ही है और श्रावकों की शङ्काएं सत्य ही थीं। रघुनाथजी बोले कि वीरभाण ! ऐसी क्या विपरीत बातें कहते हो तब वीरभाणजी ने कहा कि महाराज ! यह तो केवल बानगी ही है पूरा वर्णन तो भिक्षु स्वामी के पास है । इसी अन्तर में भिक्षु स्वामी का आगमन हुआ और गुरु को वन्दना की । गुरु की दृष्टि से ही भिक्ष समझ गये कि वीरभाणजी ने आगे से ही बात कर दी है। गुरु का पहिला सा भाव न देखकर भिक्षु ने गुरु से कहा, गुरुजी ! क्या बात है आपकी पहले सो कृपा दृष्टि नहीं विदित होती है।
SR No.032041
Book TitleBhram Vidhvansanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya
PublisherIsarchand Bikaner
Publication Year1924
Total Pages524
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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