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________________ धाविधि/६८ तीर्थंकर का आकार होने से, दर्शक को उन प्रतिमाओं में तीर्थंकर की बुद्धि उत्पन्न होती है। अतः कदाग्रह के वशीभूत होकर इस बात को स्वीकार न करें तो अरिहन्त के बिम्बों की अवज्ञा करने से अनन्त संसार-परिभ्रमण का दण्ड ही आता है। अविधिकृत प्रतिमा के पूजन से भी आज्ञाभंग लक्षण रूप दोष की आपत्ति नहीं आती है। यह बात आगम से सिद्ध है। - कल्पभाष्य में लिखा है-"किसी गच्छ से प्रतिबद्ध निश्राकृत चैत्य में तथा किसी भी गच्छ से अप्रतिबद्ध अनिश्राकृत चैत्य में तीन-तीन स्तुति से वन्दन (चैत्यवन्दन) करना चाहिए। प्रत्येक चैत्य में स्तुतित्रय से देरी होती हो अथवा मन्दिर अधिक हों तो समय या चैत्य को देखकर एक-एक स्तुति करें।" इतर यानी असंविज्ञ=मन्दिर के पुजारी। यदि उस मन्दिर में जहां-तहाँ मकड़ी के जाले लगे हुए हों..."धूल आदि लगी हो तो उस मन्दिर के पुजारियों को साधु प्रेरणा करे कि तुम इस मन्दिर की सफाई व देखभाल अच्छी तरह से करो। ___ चित्रपट दिखाकर अपनी आजीविका चलाने वाला उन चित्रों को यदि स्वच्छ रखता है, तो लोग उसका पूजा-सत्कार करते हैं। इसी प्रकार अगर तुम भी मन्दिर में बार-बार कचरा निकालने से, झाडा-झपटा आदि करने से मन्दिर को स्वच्छ रखोगे तो लोग पुरस्कार.आदि से तुम्हारा पूजा-सत्कार करेंगे। यदि वे पूजारी जिनमन्दिर-सम्बन्धी घर-खेत आदि से मेहनताना प्राप्त करते हों यानी कि वैतानिक हों, तो उन्हें ठपका देकर भी कहें कि तुम मन्दिर का वेतन लेते हो और मन्दिर की साफसफाई बराबर नहीं करते हो ? . इस प्रकार ठपका देने पर भी वे पुजारी मन्दिर की साफ-सफाई न करें तो साधु स्वयं दूसरे की निगाह न पड़े इस प्रकार जिनमन्दिर में रहे मकड़ी के जाले, धूल आदि कचरे को दूर करे। इस प्रकार कल्पभाष्य की टीका में कहा गया है। नष्ट होते हुए चैत्य की साधु बिल्कुल उपेक्षा न करे। इसीलिए जिनमन्दिर की देखभाल व सुरक्षा आदि का श्रावक का बहुत बड़ा उत्तरदायित्व हैं। जिनमन्दिर-गमन, पूजा-स्नात्र आदि की उपर्युक्त विधि समृद्धिमान् श्रावक के लिए कही है, क्योंकि इस प्रकार वही कर सकता है। परन्तु श्रावक यदि साधारण स्थिति का हो तो वह अपने घर पर ही सामायिक लेकर के किसी से कर्ज (ऋण) सम्बन्धी झगड़ा न हो तो ईर्यासमिति आदि का पालन करता हुआ अपने घर से जिनमन्दिर जाये और साधु की तरह तीन बार निसीहि आदि कहकर विधिपूर्वक परमात्मा की भावपूजा करे । यदि उसी बीच किसी गृहस्थ को परमात्मा की पूजा सम्बन्धी कोई कार्य हो तो वह निर्धन इस गाथा के विशेषार्थ हेतु देखिये-संघाचार भाष्य, मन्धकार से प्रकाश की भोर, मादि ।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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