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________________ भावविषि/६६ जिनेश्वर भगवन्त की देशना-समय राजा आदि के द्वारा उछाली गयी कूर-बलि का प्राधा भाग तो देवता ही भूमि पर गिरने के पूर्व ग्रहण कर लेते हैं। उस कूर बलि का चौथाई भाग राजा ग्रहण करता है और चौथाई भाग लोग ग्रहण करते हैं । उस बलि के सिक्थ को भी मस्तक पर चढ़ाने से शीघ्र ही व्याधि शान्त हो जाती है और छह मास तक अन्य कोई बीमारी नहीं होती है, ऐसा पागम में भी कहा गया है। उसके बाद सद्गुरु द्वारा प्रतिष्ठित और बड़े महोत्सवपूर्वक लाई गयी रेशमी बड़ी ध्वजा तीन प्रदक्षिणा आदि विधिपूर्वक चढ़ानी चाहिए। उस समय सभी को अपनी शक्ति-अनुसार भगवान के सामने भेंट धरनी चाहिए। उसके बाद प्रभु के सामने प्रारती और मंगलदीप प्रगटाना चाहिए। निकट में ही अग्निपात्र रखना चाहिए और लवरण मिट्टी डालनी चाहिए। उसके बाद-"तीर्थप्रवर्तन के समय भ्रमरपंक्ति की झंकृति से युक्त देवताओं द्वारा प्रभु के सम्मुख डाली गई कुसुमवृष्टि श्रीसंघ का मंगल करे।" इस प्रकार बोलकर पहली कुसुमवृष्टि करनी चाहिए। उसके बाद-"देखिये ! जगत् में रुक गया है प्रसार जिससे ऐसे जिनेश्वर को प्रदक्षिणा देकर, भगवान के लावण्य से मानो लज्जित होकर लवण अग्नि में गिरता है।" इस प्रकार के पाठों द्वारा विधिपूर्वक प्रभु का तीन बार पुष्पसहित लवणजल उतारना चाहिए। बाद में भगवान की दाहिनी दिशा से आरती की पूजा करके धूपोत्क्षेप करते हुए दोनों बाजू कलश द्वारा जल की धारा गिराते हुए, सभी अोर से पुष्पवृष्टि करते हुए निम्न गाथा बोलते हुए उत्तम भाजन में लेकर उत्सवपूर्वक प्रारती उतारनी चाहिए मरगयमरिणघडिनविसालयालमाणिक्कमडिप्रपईवं। ण्हवरणयरकरुक्खित्तं भमउ जिरणारत्तिनं तुम्ह ॥१॥ मरकत रत्न से घटित विशाल थाली में माणक से मंडित दीप वाली, स्नान करने वाले के हाथ से उठायी हुई जिनेश्वर भगवान की आरती आप कीजिए। त्रिषष्टिशलाका चरित्र ग्रन्थ में भी कहा है-"कृतकृत्य हो जाने की तरह कुछ दूर हटकर प्रभु के आगे होकर इन्द्र ने जगत् के स्वामी की आरती ग्रहण की।" ज्योतिषमान् औषधियों के समूह वाले शिखर से जिस प्रकार मेरुपर्वत सुशोभित होता है, उसी प्रकार भारती के दीपक की कान्ति से इन्द्र भी सुशोभित होने लगा। श्रद्धा सम्पन्न अन्य इन्द्रों ने जब छूटे फूल बिखेरे उस समय सौधर्म इन्द्र ने तीन जगत् के नाथ प्रभु की तीन बार भारती उतारी। उसके बाद मंगलदीप किया जाता है , वह भी आरती की तरह पूज्य है। "चन्द्र समान सौम्य दर्शन वाले हे प्रभो! आपका जब कौशाम्बी में समवसरण हुमा था तब संकुचित तेज वाले सूर्य ने जैसे भापको प्रदक्षिणा दी थी उसी तरह यह मंगलदीप भी मापको प्रदक्षिणा देता है।"
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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