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________________ श्रावक जीवन-पर्शन/५६ से स्तुति करना। (३) एक शक्रस्तव के द्वारा जो चैत्यवन्दन किया जाता है, वह जघन्य चैत्यवन्दन है। (२) मध्यम चैत्यवन्दन–'अरिहंत चेइयाणं' से लेकर कायोत्सर्गपूर्वक एक स्तुति कहना। (३) उत्कृष्ट चत्यवन्दन-शक्रस्तव, चैत्यस्तव, नामस्तव, श्रुतस्तव और सिद्धस्तव रूप पाँच दंडक सूत्र एवं प्रणिधान सूत्र (जयवीयराय) से युक्त चैत्यवंदन, उत्कृष्ट चैत्यवंदन है। कुछ प्राचार्यों के मत से एक शक्रस्तवयुक्त जघन्य चैत्यवंदन, दो-तीन शक्रस्तवयुक्त मध्यम चैत्यवंदन और चार-पांच शक्रस्तवयुक्त उत्कृष्ट चैत्यवंदन कहलाता है। ईरियावही के पहले या प्रणिधान के बाद में अथवा दुगुने चैत्यवन्दन में तीन शक्रस्तव होते हैं। ___ एक बार वन्दन में पहले एवं बाद में शक्रस्तव कहने से चार शक्रस्तव होते हैं। (एक बार वंदन में दो शक्रस्तव होते हैं।) अथवा दुगुने चैत्यवन्दन में (तीनशक्रस्तव होने से) पहले या बाद में शक्रस्तव कहने से भी चार शक्रस्तव होते हैं। शक्रस्तव कहकर 'ईरियावही' करना, बाद में दुगुने चैत्यवन्दन के तीन शक्रस्तव कहकर स्तोत्र एवं प्रणिधान कहना। उसके बाद शक्रस्तव कहना। इस प्रकार पाँच शक्रस्तव हो जाते हैं। * सात बार चैत्यवन्दन * महानिशीथ सूत्र में साधु को प्रतिदिन ७ बार चैत्यवन्दन करने का विधान है। श्रावक के लिए भी उत्कृष्ट से ७ बार चैत्यवन्दन का विधान है। भाष्य में कहा है-(१) रात्रि प्रतिक्रमण में, (२) जिनमन्दिर में, (३) भोजन के पूर्व, (४) भोजन के पश्चात्, (५) देवसी प्रतिक्रमण में, (६) रात्रि में संथारा पोरिसी के समय, तथा (७) प्रातः उठते समय; इस प्रकार साधु को अहोरात्र में ७ बार चैत्यवन्दन करने का विधान है। श्रावक के लिए ७ बार चैत्यवन्दन-(१) प्रातः प्रतिक्रमण में, (२) संध्या प्रतिक्रमण में, (३) सोते समय (४) उठते समय और (५-६-७) त्रिकाल पूजा के बाद । यदि श्रावक एक ही बार प्रतिक्रमण करता हो तो छह बार चैत्यवन्दन, सोते समय न करे तो पाँच बार चैत्यवन्दन तथा बहुत से जिनमन्दिरों में चैत्यवन्दन करे तो ७ से अधिक चैत्यवन्दन भी होते हैं। किसी संयोगवश श्रावक पूजा न कर सके तो भी त्रिकाल चैत्यवन्दन तो अवश्य करना चाहिए। मागम में कहा है-“हे देवानुप्रिय ! माज से जीवनपर्यन्त प्रविक्षिप्त, अचल और एकाग्र चित्त से त्रिकाल चैत्यवन्दन करना। अपवित्र, अशाश्वत और क्षणभंगुर मनुष्यदेह का यही एक सार है। जब तक प्रथम प्रहर में देव व साधु को वन्दन न हो तब तक पानी भी नहीं पीना चाहिए।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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