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________________ श्रावक जीवन-दर्शन/५१ धारण कराये जाते हैं। यदि ऐसा नहीं हो तो विजय प्रादि देव द्वारा एक ही रेशमी अंगलूछन से एक सौ आठ जिनप्रतिमा के अंगलू छन का वर्णन 'जीवाजीवाभिगम' आदि शास्त्रों में कैसे आता? "जिनबिम्ब के ऊपर आरोपित करने के बाद जो वस्तु कान्तिरहित, सुगन्धरहित और शोभारहित हो गई हो और दर्शक के मन को आनन्द देने वाली न हो तो उसे बहुश्रुत आचार्य निर्माल्य कहते हैं"-इस प्रकार संघाचारवृत्ति' में कहा है। प्रद्युम्न सूरि कृत विचारसार प्रकरण में तो इस प्रकार कहा है-"देवद्रव्य दो प्रकार का है-(१) पूजा द्रव्य और (२) निर्माल्य द्रव्य । पूजासामग्री के लिए जो प्राय आदि का साधन हो, उसे पूजाद्रव्य कहते हैं। अक्षत, फल, नैवेद्य तथा वस्त्र आदि बेचकर जो पैसे आते हैं, उसे निर्माल्य द्रव्य कहते हैं। उसका पूजा के अलावा जिनमन्दिर के कार्य में उपयोग कर सकते हैं।" - . यहाँ पर प्रभु के सामने रखे गये चावल, बादाम आदि को निर्माल्य कहा गया है, परन्तु यह बात अन्य किसी प्रागम, प्रकरण या चरित्र ग्रन्थ में नहीं मिलती है। किसी ग प्रकार की परम्परा देखने को नहीं मिलती है। जिस गाँव में पूजासामग्री के लिए आय का दूसरा साधन न हो वहाँ अक्षत, नैवेद्य आदि के द्रव्य से भी पूजा करने का विधान है। यदि अक्षत आदि को निर्माल्य गिना जाय तो उस द्रव्य से जिनपूजा कैसे हो सकती है ? अतः भोग से नष्ट हुए द्रव्य को ही निर्माल्य कहना युक्तिसंगत है। "भोग से विनष्ट द्रव्य को गीतार्थ पुरुष निर्माल्य कहते हैं" इस प्रकार की आगमोक्ति भी है। इस विषय में तत्त्व तो केवलीगम्य है । चन्दन, पुष्प आदि से पूजा करते समय इतना विवेक अवश्य रखना चाहिए कि चन्दन, पुष्प आदि से प्रभु का मुख न ढक जाय अपितु प्रभु की शोभा में अभिवृद्धि हो। इस प्रकार विवेक करने से दर्शक के मन में भी प्रमोद भाव पैदा होता है और इससे उसके पुण्य की वृद्धि होती है। * पूजा के तीन प्रकार * अंग, अग्न और भाव के भेद से पूजा तीन प्रकार की होती है। सर्वप्रथम निर्माल्य (पूर्व दिन के पुष्पादि) पदार्थों को दूर करना चाहिए। उसके बाद प्रमार्जन करके प्रभु के अंग का प्रक्षालन करना चाहिए। आवश्यकतानुसार सावधानी पूर्वक वालाकूची का उपयोग करना चाहिए। प्रभु को कुसुमांजलि करनी चाहिए। __ पंचामृत जल से स्नात्र करना चाहिए। उसके बाद निर्मल जल से प्रभु का प्रक्षालन कर धूपित, स्वच्छ गंध काषायादिक वस्त्रों से प्रभु का अंगलू छन करना चाहिए। उसके बाद कपूर ग्रादि से मिश्र गोशीर्ष चन्दन से प्रभ का विलेपन तथा प्रांगी आदि करनी चाहिए। उसक बाद गोरोचन, कस्तूरी आदि से तिलक तथा पत्र आदि की रचना करनी चाहिए। तत्पश्चात् मूल्यवान रत्न, सुवर्ण, मोती आदि के अलंकारों से तथा सोने-चांदी के फूलों से प्रभु की सजावट करनी चाहिए। 0 वस्तुपाल मंत्री ने सवा लाख जिनबिम्बों के तथा शत्रुजय तीर्थ के समस्त जिनबिम्बों के रत्न व सुवर्ण के अलंकार बनवाये थे।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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