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________________ श्राद्धविषि/३६ नीवि प्रमुख पोरिसी आदि के पच्चक्खाण दुविहार भी होते हैं। कहा भी है कि-साधु को रात्रि में चौविहार होता है और नवकारसी चौविहार होती है। भवचरिम, उपवास और आयंबिल पच्चक्खाण तिविहार व चौविहार दोनों प्रकार के होते हैं। शेष पच्चक्खाण दुविहार, तिविहार और चौविहार होते हैं। इस प्रकार पच्चक्खाण में आहार का विवरण समझना चाहिए। निवी और आयंबिल आदि में कल्प्य और प्रकल्प्य विभाग के अनुसार सिद्धांत आदि अपनीअपनी सामाचारी से समझना चाहिए। पच्चक्खाण भाष्य से अनाभोग, सहसात्कार आदि के आगारों का स्वरूप अच्छी तरह से समझकर हृदय में स्थापित करना चाहिए अन्यथा पच्चक्खाण की शुद्धि आदि नहीं हो सकती। * जिनपूजा हेतु द्रव्यशुद्धि * शुचि अर्थात् मलोत्सर्ग करना, दाँत साफ करना, जीभ की शुद्धि करना, जीभ खुरचना, कुल्ला करना, सर्वस्नान, देशस्नान आदि से पवित्र होना । • यह अनुवाद-वाक्य है। क्योंकि मल-मूत्र विसर्जन आदि लोकप्रसिद्ध होने से इसके लिए उपदेश करने की आवश्यकता नहीं है। जो वस्तु लोकसंज्ञा से प्राप्त नहीं होती है, उसी वस्तु का उपदेश करने में शास्त्र की सफलता है। "मलिन पुरुष को स्नान करना चाहिए और भूखे व्यक्ति को भोजन करना चाहिए"-ऐसी बातों में शास्त्र के उपदेश की आवश्यकता नहीं रहती है। लोक-संज्ञा से प्राप्त, इसलोक और परलोक के लिए हितकारी धर्ममार्ग का उपदेश करने में ही शास्त्र की सफलता है। अन्य स्थल में भी यह बात समझ लेनी चाहिए। सावद्य-प्रारम्भ की प्रवृत्ति में तो वाचिक अनुमोदना करना भी उचित नहीं है। कहा भी है-“सावद्य और निरवद्य वचन के भेद को जो नहीं समझता है, उसको तो बोलना भी उचित नहीं है तो फिर उपदेश की तो बात ही कहाँ रही ?" . मलोत्सर्ग मौनपूर्वक और निरवद्य स्थान में विधिपूर्वक करना चाहिए। कहा भी है"लघुनीति, बड़ीनीति (मल-मूत्र), मैथुन, स्नान, भोजन, संध्याकर्म, पूजा और जाप आदि क्रियायें मौनपूर्वक करनी चाहिए।" विवेक विलास में कहा है—मौनपूर्वक और वस्त्र सहित होकर दिन में और उभय संध्या (सुबह-शाम) में मल-मूत्र करना हो तो मुख उत्तर दिशा सम्मुख करना चाहिए और रात्रि में मल-मूत्र करना हो तो दक्षिण दिशा सम्मुख मुंह करना चाहिए। प्रभात-संध्या काल-सभी नक्षत्र तेजरहित बन गये हों और सूर्य का अर्ध उदय न हुआ हो, तब तक का काल प्रभात-संध्या काल कहलाता है। सायं काल-प्राधा सूर्य अस्त हो गया हो और जब तक दो-तीन नक्षत्र दिखाई न दे, तब तक का काल संध्या काल कहलाता है। .
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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