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________________ श्राद्धविधि / २६ ग्रीष्म ऋतु में रुक्षकाल होने से वह जल पाँच प्रहर तक प्रचित्त रहता है। शीतकाल में स्निग्धता होने से चार प्रहर और वर्षाऋतु में प्रतिस्निग्धता होने से तीन प्रहर तक वह जल प्रचित्त रहता है, उसके बाद वह जल सचित्त हो जाता है । ग्लान आदि के लिए वह जल उपर्युक्त कालमर्यादा से अधिक रखना पड़े तो उसमें क्षार ( चूना) पदार्थ डाल देना चाहिए, ताकि वह जल सचित्त न हो । बाह्य किसी शस्त्र के सम्बन्ध बिना जो जल स्वभाव से ही प्रचित्त हो गया है, उसे अपने ज्ञान से केवलज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी और अवधिज्ञानी और श्रुतज्ञानी अचित्त जानते हुए भी अपने उपयोग में नहीं लेते हैं, क्योंकि उससे अनवस्था ( गलत परम्परा ) की सम्भावना रहती है । दृष्टान्त - एक बार महावीर प्रभु शिष्यों के साथ विहार कर रहे थे । उन्होंने अपने ज्ञान बल से शैवाल, मत्स्य, कछुए आदि से रहित अचित्त जल से भरे सरोवर को देखा । उनके शिष्य तृषापीड़ित थे । उनके प्रारण संकट में होने पर भी प्रभु ने उन्हें उस जल को पीने की अनुमति नहीं दी । इसी प्रकार भूख से पीड़ित होने पर भी, अचित्त तिल से भरी गाड़ी समीप होने पर भी अनवस्थादोष निवारण और श्रुतज्ञान की प्रामाणिकता के लिए प्रभु ने अपने शिष्यों को शुष्क भूमि पर उन अचित्त तिलों को वापरने (खाने) की अनुमति नहीं दी । सामान्य श्रुतज्ञानी बाह्य शस्त्र बाह्य शस्त्रप्रयोग से वर्ण, गन्ध आदि में चाहिए । सम्पर्क के बिना जल को अचित्त नहीं मानता है, अतः परिवर्तन पाये हुए अचित्त जल का ही उपयोग करना कंकटुक, मूग तथा हरड़े आदि प्रचित्त होने पर भी अविनष्ट योनि होने के कारण उसके रक्षरण के लिए तथा अपने कठोर परिणाम के निवारण के लिए उन्हें दाँत आदि से नहीं तोड़ना चाहिए | प्रोघनियुक्ति की पचहत्तरवीं गाथा की टीका में किसी के प्रश्न का जवाब देते हुए कहा गया है प्रश्न - चित्त वनस्पति की यतना रखने की क्या आवश्यकता है ? उत्तर - यद्यपि वह अचित्त है फिर भी कुछ वनस्पतियों की योनि प्रविनष्ट होती है । जैसे - गिलोय, कंकटुक, मूंग आदि । गिलोय सूखी हो फिर भी जल के सिंचन से पुनः हरी हो जाती है । इसी प्रकार कंकटुक, मूंग आदि भी । अतः योनिरक्षण के लिए प्रचित्त वनस्पति की भी यतना रखनी चाहिए । इस प्रकार सचित्त चित्त वस्तु के स्वरूप को अच्छी तरह से समझकर सातवें व्रत को ग्रहण करते समय सचित्त आदि सर्वभोग्य वस्तुनों की मर्यादा कर आनन्द, कामदेव आदि श्रावकों की तरह व्रत स्वीकार करना चाहिए । यदि उतना शक्य न हो तो सामान्य से प्रतिदिन एक, दो, चार सचित्त, दस-बारह आदि द्रव्य तथा एक-दो-चार आदि विगई का नियम करना चाहिए । परन्तु इस प्रकार प्रतिदिन कुछ-कुछ अन्य अन्य सचित्त ग्रहण भी हो जाता है । इससे विशेष विरति नहीं होती है । के ग्रहण से क्रमश: सर्व सचित्त का अतः नामग्रहण पूर्वक सचित्त की
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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