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________________ श्रावक जीवन-दर्शन / ३५६ की भाँति पत्थर की शिला पर कूट-कूट कर तुझे अवश्य यमराज का अतिथि बना दूंगा, इसमें कोई संशय मत रखना । देवताओं का रोष झूठा नहीं होता है और विशेषकर राक्षसों का ।" इतना कहकर उस क्रोधी राक्षस ने कुमार को पैरों से पकड़ लिया और उसको पछाड़ने के लिए शिला के पास ले गया, तब वह साहसी कुमार बोला- “अरे ! बिना किसी विकल्प के तुम अपने संकल्प को शीघ्र पूरा करो, किस कारण मुझे बारंबार पूछते हो ? क्योंकि सत्पुरुषों का वचन एक ही होता है ।" उसी समय कुमार के सत्त्व के उत्कर्ष के हर्ष से रोमांचित शरीरवाला, महातेजस्वी जादूगर की भाँति शीघ्र ही अपने राक्षस रूप का संहरण कर दिव्य अलंकारों से सुशोभित वह वैमानिक देव हो गया । उसी समय उसने मेघ की वृष्टि की भाँति पुष्पवृष्टि की और भाट चारण की भाँति उसका जयजयकार किया और आश्चर्यचकित हुए कुमार को कहने लगा- ' - "मनुष्यों में चक्रवर्ती की भाँति सात्त्विक पुरुषों में तुम ही अग्रणी हो । तुम्हारे जैसे पुरुषरत्न से यह भूमि प्राज रत्नगर्भा बनी है । हे शूरवीर ! तुम्हारे जैसे वीर से यह पृथ्वी वीरप्रसूता हुई है। बहुत अच्छा ! बहुत अच्छा! मेरुपर्वत के शिखर समान निश्चल मन वाले तुम्हारे द्वारा साधु के पास धर्म स्वीकार किया गया । इन्द्र का सेनापति हरिणंगमेषी अन्य देवों की साक्षी में तुम्हारी प्रशंसा करता है, वह योग्य ही है ।" आश्चर्यचकित होकर कुमार ने पूछा, "अप्रशंसनीय ऐसे मेरी वह देवता प्रशंसा क्यों करता है ?" उसने कहा - "सुनो। महल के लिए जिस प्रकार दो महल वालों के बीच झगड़ा होता है, उसी प्रकार एक बार नवीन उत्पन्न हुए सौधर्मदेवलोक और ईशानदेवलोक के इन्द्रों के बीच विमान के लिए विवाद हो गया । सौधर्मदेवलोक में बत्तीस लाख और ईशानदेवलोक में अट्ठाईस लाख विमान हैं, फिर भी वे दोनों विवाद करते हैं, सचमुच, ऐसे संसार को धिक्कार हो । विमान की ऋद्धि में लुब्ध ऐसे उन दोनों के बीच बाहुयुद्ध श्रादि महायुद्ध भी अनेक बार हो गये । "तिर्यंचों के झगड़ों को मनुष्य शीघ्र मिटा देता है। मनुष्यों के झगड़ों को राजा मिटा देता है । राजाओं के झगड़ों को देवता और देवताओं के झगड़ों को इन्द्र मिटा देते हैं, परन्तु इन्द्रों के बीच ही झगड़ा हो जाय तो वज्राग्नि की भाँति जिसे शान्त करना कठिन है, उसे कौन मिटाये ? अन्त में काफी समय बीत जाने के बाद महत्तर देवताओं ने माणवक स्तम्भ में रही हुई अरिहन्त परमात्मानों की दाढ़ाओं का शान्ति जल, जो आधि, व्याधि, महादोष व महावैर को दूर करने वाला है, उन इन्द्रों पर छिड़का, उस जल से वे दोनों शीघ्र शान्त हो गये । अथवा उस पवित्र जल से कौनसी सिद्धि नहीं होती ?" उसके बाद परस्पर शान्त बने हुए उन दोनों को उनके सचिवों ने कहा- "पूर्व की व्यवस्था इस प्रकार की है। सत्पुरुषों की वाणी समयानुसार ही होती है। दक्षिण दिशा में जो विमान हैं। वे सौधर्म इन्द्र के हैं और उत्तरदिशा में जो विमान हैं, वे ईशानइन्द्र के हैं। पूर्व और पश्चिम दिशा में जो त्रिकोरण व चतुष्कोण विमान हैं, उनमें आधे सौधर्म इन्द्र के और आधे ईशान इन्द्र
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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