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________________ श्राविषि/३५२ क्रमशः कुमार सहित आगे बढ़ता हुआ राजा नगर के समीप पहुंचा। वर-वधू को देखने की उत्कण्ठा से नगरवासी भी अत्यन्त खुश हो गये थे। राजा ने भव्य महोत्सव के साथ दो प्रियाओं सहित रत्नसारकुमार का नगरप्रवेश कराया। उस समय वह नगरी कामिनी की तरह केसर व कुकुम के छिड़काव से गीली बनी हुई थी, अरिहन्त की देशनाभूमि की तरह नगरी में जानुपर्यन्त फूल बिछाये हुए थे। उछलती हुई ध्वजा रूपी भुजानों से वह नगरी नाच करती हुई प्रतीत हो रही थी। बजती हुई घुघरियों की आवाज से वह नगरी गाती हुई प्रतीत हो रही थी। उस नगरी में विश्व की लक्ष्मी की क्रीड़ाभूमि समान देदीप्यमान तोरणों की श्रेणी थी। मंच पर बैठे हुए लोग मंगल गीत गा रहे थे। स्त्रियों के हंसते हुए चेहरे से वह नगर पद्मसरोवर की भाँति प्रतीत हो रहा था तथा उन स्त्रियों के विकसित नेत्रों से वह नगर नीलोत्पलवन की तरह प्रतीत हो रहा था। _ राजा ने खुश होकर सर्वमान्य उस कुमार को धन, अश्व, दास प्रादि अनेक वस्तुएँ प्रदान की। वास्तव में, नीतिज्ञों की यही रीति होती है। अपने पुण्य के प्रसाद से श्वसुर द्वारा अर्पित महल में वह एक दूसरे राजा की भाँति उन दोनों स्त्रियों के साथ विलास करने लगा। स्वर्ण के पिंजरे में रहा, कौतुक करने वाला तोता व्यास की तरह प्रश्नोत्तरी व प्रहेलिका आदि कहता रहता था। वहाँ पर रहे कुमार को स्वर्ग में गये हुए मनुष्य की भाँति अपने पूर्व की कोई भी बात याद नहीं आई। सुख के उत्कर्ष में उसका एक वर्ष एक क्षण की भाँति बीत गया। एक बार नीच लोगों को हर्ष देने के बाद रात्रि में कुमार पोपट के साथ में दीर्घकाल तक गोष्ठी रूपी अमृत का पान कर रत्नजड़ित वासगृह में सुखशय्या में सुखपूर्वक सो गया था। तब मध्य रात्रि में अन्धकार से समस्त लोगों की चक्षुषों को कष्ट देने वाला समय हुआ, उस समय सभी चौकीदार भी निद्राधीन हो गये थे। तब एक दिव्य आकार को धारण करने वाला, मूल्यवान शृंगार से सुसज्जित, चोर की चाल से चलने वाला, नंगी तलवार हाथ में धारण करने वाला, नेत्र की भांति चारों ओर सभी द्वार बंद होने पर भी कोई कोपायमान पुरुष कहीं से वहां आ गया। उसके गुप्त रूप से वासगृह में प्रवेश करने पर भी दैवयोग से कुमार शीघ्र जग गया। उत्तमपुरुष अल्पनिद्रा वाले ही होते हैं। ___ कुमार ने जैसे ही मन में यह सोचा-"यह कौन है ? यहाँ क्यों व कैसे पाया है ?" तभी वह पुरुष क्रोध के कारण जोर से बोला-"अरे कुमार! यदि तुम वीर हो तो युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। जैसे सिंह धूर्त सियार को सहन नहीं करता, उसी प्रकार तेरे जैसे वणिक् के झूठे पराक्रम को मैं नहीं सह सकता।" इतना कहकर तोते के सुन्दर पिंजरे को उठाकर वह तीव्रगति से चल पड़ा। अहो ! कपटी लोगों का यह कैसा कपट है ? उसी समय बिल में से निकले हुए सर्प की भाँति म्यान में से तलवार निकाल कर क्रोधसहित वह कुमार भी उसके पीछे दौड़ा। वह आगे और कुमार पीछे ! लब्ध लक्ष्य वाले और शीघ्रगति से दौड़ने वाले उन दोनों ने थोड़ी ही देर में किले व घर आदि का भी उल्लंघन कर दिया।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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