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________________ श्राद्धविधि / ३५० उस दान को सत्य सिद्ध करने वाला यह स्वीकार करो" - इतना कहकर उसने अपने मूर्तिमान् चित्त की भाँति मनोहर मोती का हार कुमार के गले में डाल दिया । अत्यन्त प्रादर होने के कारण निःस्पृह होते हुए भी कुमार ने उसे स्वीकार किया "प्रिय व्यक्ति द्वारा दी गयी वस्तु को लेने की प्रेरणा प्रीति ही करती है ।" उसी समय तिलकमंजरी ने पोपट की भी कमलों से पूजा की । उत्तम पुरुषों का बोला वचन कभी अन्यथा नहीं होता है । उसी समय औचित्यकृत्य में जागरूक चन्द्रचूड़ ने कहा - "पूर्व में देव द्वारा दी गयी दोनों कन्यायें मैं अभी तुम्हें देता हूँ । मंगल कार्यों में अनेक विघ्न होते हैं, अतः पूर्व में चित्त में ग्रहण की गई इन कन्याओं को पारिण से ग्रहण करो।" इतना कहकर चन्द्रचूड़ वधुनों के साथ उसको विवाह के लिए लक्ष्मी के पुञ्ज समान तिलकवृक्ष के निकुंज में ले गया। दूसरे रूप से चक्रेश्वरी के पास जाकर सम्पूर्ण वृत्तान्त कहा । नाना प्रकार के विमान में बैठी हुई अपने समान अनेक देवताओं से सुसेवित चक्रेश्वरी देवी वहाँ पर उपस्थित हो गई । वह विशाल विमान अपने वेग से पवन को भी जीतने वाला था । उस विमान में विशाल मणिघंट टंकार कर रहे थे । रत्नमय घुंघरियों से आवाज करने वाली संकड़ों ध्वजाएँ फहरा रही थीं । मनोहर माणिक्य के तोरणों की श्रेणी से वह विमान अत्यन्त सुन्दर था । वाद्ययन्त्रों की ध्वनि से पुतलियों का समूह वाचाल बन गया था । पारिजात आदि पुष्पों की मालाएँ लगी हुई थीं । हार-अर्धहार की शोभा वाले उस विमान में सुन्दर चामर उछल रहे थे । वह सम्पूर्ण विमान रत्नमय होने से साक्षात् सूर्य की भाँति अपने तेज से प्रचण्ड अन्धकार के समूह को खण्डित कर रहा था - ऐसे विमान में बैठकर चक्रेश्वरी देवी वहाँ आई । वधुओं और वर ने देवी को प्रणाम किया । और उसने कुलवृद्धा की तरह उन्हें इस प्रकार आशीर्वाद दिया- "तुम प्रीतिपूर्वक दीर्घकाल तक एक साथ रहकर सुख-लक्ष्मी को भोगो और पुत्रपौत्रादि की संतति से विजय प्राप्त करो ।" उसके बाद औचित्यपालन में चतुर उस देवी ने अग्रणी होकर शीघ्र ही चँवरी आदि विवाह की समग्र सामग्री तैयार की। उस समय देवांगनाओं ने धवलमंगल गीत गाये और विधिपूर्वक उनका भव्य लग्न- महोत्सव सम्पन्न हुआ । देवियों ने अपने गीत में पोपट को भी गाया । अहो ! बड़ों की संगति का यही फल होता है । अहो ! कन्यानों व कुमार के असीम पुण्य का उदय है कि जिनके विवाह की मंगलविधि चक्रेश्वरी देवी ने की । चक्रेश्वरी देवी ने उनके रहने के लिए सौधर्मावतंसक विमान की भाँति सर्वरत्नमय सात खण्ड का महल बना दिया। वह महल प्रधान विविध क्रीड़ानों का मनोहर स्थान था । सात मंजिल का वह महल मानों सात द्वीप की लक्ष्मी का महल न हो, इस प्रकार शोभता था । श्रद्वितीय गवाक्षों के द्वारा एवं चित्ताकर्षक मदोन्मत्त हाथियों से वह इन्द्र की शोभा को धारण करता था । कहीं कर्केतन रत्नों का समूह जड़ा होने से गंगा नदी के समान प्रतीत होता था, तथा कहीं-कहीं पर श्रेष्ठ वैडूर्यरत्नों से यमुना के जल की भ्रान्ति कराता था । कई भागों में पद्म राग
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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