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________________ श्रावक जीवन-दर्शन/३४३ अभिमान रखता हो तो भी क्या अपार सागर को पार कर सकता है ? अतः वे सब त्रस्त बने हुए, आकुल-व्याकुल बने हुए तथा पराक्रममुक्त बने हुए की तरह तोते की इस हाँक को सुनकर सियार की भाँति लौट गये और जैसे बालक अपने पिता को सब बातें कहता है, वैसे ही उन्होंने जाकर अपने स्वामी विद्याधरेन्द्र को सब बातें कह दी क्योंकि अपने स्वामी के पास छिपाने जैसा क्या है ? इस बात को सुनकर प्रथम मेघ की भांति गर्जना करते हुए, कोप से लाल बने नेत्रों के प्रक्षेप से बिजली का भी उपहास करते हुए, ललाट पट्ट पर चढ़ी भौंहों से भयंकर मुखवाले सिंह की भाँति और प्रोजस्वी तथा यशस्वी उस विद्याधरेन्द्र ने कहा-"अपने आपको वीर मानने पर भी व्यर्थ ही भय से डरते हुए तुम कायरों को धिक्कार हो! पोपट, कुमार तथा अन्य सुर व असुर क्या चीज हैं ? हे दरिद्रियो ! अब तुम मेरा पराक्रम देखो।" इस प्रकार जोर से बोलते हुए उसने अपने दस मुख कर लिये। उसने बायें हाथ में शत्रों के प्राणों को लीलापूर्वक ग्रस्त करने वाली तलवार धारण की और दूसरे हाथ में फलक ग्रहण किया। एक हाथ में उसने मणियुक्त सर्प की भांति बाणों का समूह धारण किया और यम की भुजाओं की भाँति अत्यन्त प्रचण्ड बाण धारण किया। एक हाथ में मूर्तिमन्त यश वाला गम्भीर स्वरवाला शंख था और दूसरे हाथ में शत्रों के यश रूपी हाथी को बांधने वाला नागपाश था। यम रूपी हाथी के दन्त समान शत्रुओं का नाश करने वाला भाला, दुश्मनों के द्वारा दुःख पूर्वक देखा जाय ऐसा परशु तथा पर्वत के समान बहुत बड़ा मुद्गर था। भयानक पत्रपाल, जलती हुई कान्ति वाला भिदिपाल, अत्यन्त तीक्ष्ण शल्य और बहुत बड़ा तोमर था। शत्रु को पीड़ा उत्पन्न करने वाला त्रिशूल, प्रचण्ड लोहदण्ड, मूर्तिमन्त अपनी शक्ति के समान शक्ति नाम का शस्त्र तथा शत्रु को खत्म करने में निपुण पट्टिस नाम का शस्त्र था। किसी प्रकार से नहीं फूटे ऐसा दुस्फोट, दुश्मनों को विघ्न देने वाली शतघ्नी और दुश्मन के समूह के लिए कालचक्र समान चक्र था, इस प्रकार ये चौदह शस्त्र शेष चौदह हाथों में धारण किये हुए थे। इन बीस हाथों से जगत् के लिए वह भयंकर था। एक मुख से सांड की भाँति भयंकर हुंकार करता था। दूसरे मुख से कल्पान्तकाल के क्षुब्ध सागर की भाँति गर्जना करता हुआ, इसी प्रकार एक मुख से सिंह के समान गर्जना करता हुआ, एक मुख से अट्टहास द्वारा शत्रुओं को अत्यन्त परेशान करता हुआ, एक मुह से वासुदेव की भाँति द द्वारा मोटा शंख बजाता हमा, एक मुख से मंत्रसाधक की भाँति विचित्र दिव्य मन्त्रों का जाप करता हुआ, एकमुख से वानरस्वामी की भाँति हक्कार-बुक्कार करता हुआ, एक मुख से पिशाच की भाँति जोर से किलकिल ध्वनि करता हुआ, एक मुख से कुशिष्यों को तर्जना करने वाले सद्गुरु की भाँति अपने सैन्य को तर्जना करता हुआ और एक मुख से प्रतिवादी की भर्त्सना करने वाले वादी की भाँति रत्नसार का तिरस्कार करता था। इस प्रकार अपने दस मुखों से नयी-नयी चेष्टाओं द्वारा दस दिशाओं को एक साथ भक्षण करने के लिए तैयार हुआ प्रतीत होता था। वह अपनी दो आँखों से अपनी सेना की ओर अवज्ञा व तिरस्कार से देख रहा था, दो आँखों से अपनी भुजाओं को अहंकार व उत्साह से देखता था। दो आँखों से अपने आयुधों को हर्ष व उत्साह से देखता था, दो आँखों से तोते की ओर दया व आक्षेप से देखता था, दो आँखों से हंसिनी की ओर प्रेम व उपनय (उपलब्धि के भाव) से देखता था, दो आँखों से तिलकमंजरी को अभिलाषा व उत्सुकता से देखता था, दो आँखों से मयूर की ओर स्पृहा व कौतुक से देखता था, दो आँखों से
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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