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________________ श्रावक जीवन-दर्शन / ३१५ की, पथ्य भोजन, स्नानविधि, स्तनपान के प्रयत्न और मल-मूत्र की सफाई आदि द्वारा बड़ी कठिनाई से पुत्र का रक्षण किया अत: वह माता ही स्तुति करने योग्य है ।" यह सब सुनकर शोक से सजल नेत्रवाला शुकराज बोला - "हे देवी! निकट में रहे हुए तीर्थ को नमस्कार किये विना मैं कैसे जाऊँ ?" बुद्धिमान तथा उत्साही पुरुष को समय पर भोजन करने की तरह यथोचित सद्धर्म-कर्म का अवसर आने पर उसे करना ही चाहिए । माता इस लोक में स्वार्थ (हित) करने वाली है, जबकि यह तीर्थ उभय लोक में हितकारी है अतः इसको नमस्कार करके वहाँ अाने के लिए उत्सुक हूँ ।" "मैं अभी आया हूँ ।" - इस प्रकार जाकर मेरी माता को कहना | चक्रेश्वरी देवी ने भी वैसा ही किया । शुकराज शाश्वत सिद्धायतन तीर्थं पर आया । वहाँ रही शाश्वती जिनप्रतिमाओं को नमस्कार करके उसने पूजा की और कृतार्थी ने अपना जन्म सफल किया । 1 अनन्तर दोनों वधुनों को साथ लेकर और श्वसुर व मातामह की प्राज्ञा लेकर एवं प्रादिनाथ प्रभु को नमस्कार कर बहुत से विद्याधरों से सेवित, बड़े प्राडम्बर के साथ अद्वितीय विमान में बैठ कर वह शुकराज अपने नगर के समीप आया । उसके बाद सभी नगरवासी उसे देख उसकी प्रशंसा करने लगे । तरह उसने अपने पिता के नगर में प्रवेश किया । इन्द्र के पुत्र जयन्त की पिता ने पुत्र ' के श्रागमन का भव्य महोत्सव किया; वर्षाऋतु में जलवृष्टि की भाँति बड़े लोगों का हर्ष भी सर्वत्र फैल गया । युवराज की भाँति शुकराज राज्यचिंता करने लगा । जो पुत्र समर्थ होने पर भी अपने पिता के कार्यभार को हल्का न करे, वह कैसा पुत्र ? एक बार बसन्त ऋतु में क्रीड़ा सिन्धु के फैलने पर राजा अपनी पत्नी व पुत्रों के साथ उद्यान में आया। सभी लोग लज्जा छोड़कर अलग-अलग क्रीडाएँ कर रहे थे, उसी समय अचानक भयंकर कोलाहल हो गया । राजा के पूछने पर किसी ने निश्चय करके कहा - "हे प्रभो ! सारंगपुर नगर में वीरांग नाम का राजा है। उसके शूर नाम का शूरवीर पुत्र है। जैसे हाथी हाथी पर आक्रमण करता है, उसी प्रकार पूर्वभव के वैर के कारण उसने हंसराज पर आक्रमण किया है ।' यह बात सुनकर तार्किक राजा ने मन में तर्क किया- "मैं राज्य करता हूँ, शुकराज राज्य चिन्ता करता है, वीरांग तो मेरा सेवक है तो फिर सूर और हंस के परस्पर वैर का क्या कारण हो सकता है ?" इस प्रकार सोचकर वह उत्सुक राजा शुक और हंस को साथ में लेकर जैसे ही चला, वैसे ही किसी सुभट ने आकर राजा को कहा - "हे देव ! पूर्व भव में तुम्हारे पुत्र हंस ने सूर का पराभव किया था, उस वैर से यह सूर हंस के साथ युद्ध चाहता है ।" पराक्रमी हंस ने युद्ध के लिए सुसज्ज पिता व भाई को रोक दिया और स्वयं ही युद्ध के लिए चला गया । सूर भी बहुत से शस्त्रों के साथ युद्ध के रथ में प्रारूढ़ होकर अत्यन्त अभिमान के साथ युद्ध के मैदान में श्रा गया । सभी के देखते हुए अर्जुन व कर्णं की भाँति उन दोनों का दीर्घकाल तक शस्त्रयुद्ध हुआ । श्राद्धभोजी ब्राह्मण की तरह युद्ध में श्रद्धा वाले अत्यन्त लड़े, फिर भी वे तृप्त नहीं हुए । उन दोनों को महा-उत्साही और महाबलवान जानकर विजयश्री भी संशय में पड़ गयी ।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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