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________________ श्रावक जीवन-दर्शन/३१३ हुई और हिंसक पशु तथा अग्नि आदि के कुछ भी उपद्रव नहीं हुए। अहो ! पूर्वभव में किये गये धर्म की अत्यन्त महिमा है। इसके प्रभाव से तीर्थंकर की तरह सामान्य मानव की भी यह स्थिति हुई। तापसजनों के सान्निध्य में सुखपूर्वक वह उस आश्रम में रह रहा था, तभी एक दिन रात्रि में उसने रोती हई स्त्री का करुण स्वर सुना। करुणानिधि और सत्त्वशाली वह शकराज वहाँ और उसने कोमल वचनों के द्वारा उसके दुःख का कारण पूछा। उसने कहा-"शत्रुओं के समूह से निष्कम्प चम्पानगरी में शत्रुओं का मर्दन करने वाला शत्रुमर्दन नाम का राजा था। गुणों से पद्मावती समान उसकी पद्मावती नाम की पुत्री थी। मैं उसकी धावमाता हूँ। एक बार मैं उसे गोद में लेकर बैठी थी, तब जिस प्रकार सिंह बछड़े सहित गाय को उठाकर ले जाता है, उसी प्रकार किसी विद्याधर ने मेरा अपहरण कर लिया और मुझे यहाँ छोड़कर उस कन्या को लेकर वह भाग गया। इस दुःख से मैं रोती हूँ।" इस प्रकार उस स्त्री के कहने पर शुकराज ने उसे आश्वासन दिया। उसे किसी झोपड़ी में छोड़कर विद्याधर की शोध में भ्रमण करता हुआ रात्रि के अंतिम प्रहर में मन्दिर के पृष्ठभाग में पहुँचा और वहां भूमि पर पड़े हुए क्रन्दन करते हुए किसी मनुष्य को देखा। दयालु ऐसे उसने पूछा-"तुम कौन हो और तुम्हें क्या दुःख है ?" कृपालु को यथोचित कहना चाहिए इसलिए उसने भी कहा-“मैं गगनवल्लभ नगर के राजा विद्याधर अधिपति का पुत्र हूँ। वायुवेग मेरा नाम है। कन्या का अपहरण करके मैं जा रहा था तब तीर्थ के उल्लंघन के कारण मैं विद्याभ्रष्ट हो गया और शीघ्र गिर गया। अन्य कन्या के अपहरण के पाप से पड़ने के कारण अत्यन्त पीड़ा वाले मैंने उस कन्या को छोड़ दिया तथा कन्या पर की रागबुद्धि भी छोड़ दो। शिकारो के हाथ से छूटे हुए पक्षी की भाँति वह कन्या भी कहीं चली गई है। धिक्कार हो मुझ पापी को। लोभ की इच्छा से मैंने मूल धन को भी खोया। जिसकी शोध में शुकराज निकला था, उस कन्या के समाचार की प्राप्ति से वह खुश हो गया। उसके बाद शोध करते हुए उसने मन्दिर के भीतर देवी की तरह उस कन्या को देखा। शुकराज ने धावमाता और पुत्री का मिलन करा दिया और क्रमशः उपचार द्वारा विद्याधर को भी ठीक कर दिया। . जीवनदान के उपकार से खरीदे हुए की तरह वह विद्याधर अत्यन्त प्रीतिवाले शुकराज का अनुचर (सेवक) बन गया। "अरे ! आकाशगामिनी विद्या तुम्हारे पास है या नहीं ? " इस प्रकार पूछने पर वह बोला, (मुखपाठ मात्र) विद्या तो है किन्तु स्फुरित (चलती) नहीं हो रही है। कोई विद्यासिद्ध पुरुष मेरे मस्तक पर हाथ रखकर मुझे विद्या प्रदान करे तो वह विद्या पुनः स्फुरित हो सकती है, अन्यथा नहीं।" शुक ने कहा-"पहले तुम मुझे अपनी विद्या दे दो, मैं उस विद्या को सिद्ध कर कर्ज के द्रव्य की भाँति वह विद्या वापस दे दगा।" खश होकर उस विद्याधर शुकराज को प्रदान की और उसने उसकी साधना की। देव की दृष्टि में पुण्य से पवित्र आत्मा ऐसे शुकराज को वह विद्या तुरन्त ही सिद्ध हो गयी। शुकराज ने वह विद्या उस विद्याधर को दी, उसे भी पाठसिद्ध विद्या की भाँति वह सिद्ध हो गयी। उसके बाद वे दोनों भूचर और खेचर (विद्याधर) हो गये। विद्याधर ने शुकराज को दूसरी विद्याएँ भी प्रदान की। अगण्य पुण्य का संयोग होने पर मनुष्य के लिए क्या दुर्लभ है ! उसके बाद उच्च विमान की रचना कर गांगलि ऋषि के निर्देश से दोनों स्त्रियों को साथ लेकर चम्पापुरी में गये और कन्या के अपहरण से राजा को उत्पन्न पीड़ा रूप राहु से मुक्त किया।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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