SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 327
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्राद्धविधि/३१० हुमा दिखाई दिया। श्रीदत्त को देखकर अत्यन्त कुपित हुआ शंखदत्त कृतान्त की तरह उसे मारने के लिए दौड़ा। परन्तु राजा आदि को पास में देखकर एकदम क्षुब्ध हो गया और स्तम्भित की भांति क्षण भर खड़ा रह गया। उसी समय गुरु भगवन्त ने उसे कहा- "हे शंखदत्त ! तू चित्त से क्रोध को निकाल दे। तीव्र क्रोध तो अग्नि की तरह अपने स्थान को भी जलाता है। क्रोध तो चाण्डाल है, अत: उसका स्पर्श करना उचित नहीं है। आश्चर्य है कि क्रोध का स्पर्श हो जाय तो गंगास्नान आदि से भी उसकी शुद्धि नहीं होती है।" जिस प्रकार गारुड़ी मंत्र को सुनकर भयंकर सर्प शान्त हो जाता है, उसी प्रकार सुसंयमी मुनि भगवन्त की तात्त्विक वाणी को सुनकर शंखदत्त एकदम शान्त हो गया। श्रीदत्त ने उसे प्रीति से बाहु में धारण किया और उसे अपने पास बिठाया। सचमुच वैरभाव इसी प्रकार दूर होता है। तत्पश्चात् श्रीदत्त ने केवली में श्रेष्ठ ऐसे मुनि भगवन्त को पूछा--"प्रभो ! यह समुद्र में से कैसे बाहर पाया?" - केवली भगवन्त ने कहा-"सागर में गिरने पर भाग्ययोग से भूखे व्यक्ति को प्राप्त फल की भाँति उसे कोई काष्ठ-फलक मिल गया। आयुष्य टूटे बिना किसी की मृत्यु नहीं होती है। जिस प्रकार सुवैद्य के वचनानुसार औषधोपचार से व्याधि नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार तट के अनुकूल पवन की प्रेरणा से वह सात दिन में किनारे पर लग गया और तट पर रहे सारस्वत नाम के नगर में पहुंचा। थका हुआ व्यक्ति जल को पाकर खुश होता है, उसी प्रकार वह सारस्वत नगर को पाकर खुश हुआ। उस नगर में संवर नाम का इसका मामा था, वह इस प्रकार की स्थिति में इसे देख दुःखी हुमा और अत्यन्त प्रेम से इसे अपने घर ले गया। मूर्ख शिष्य को जिस प्रकार गुरु ठीक करते हैं, उसी प्रकार एक माह में अच्छी औषधियों से, समुद्र से जले हुए उसके अंगों को उसने ठीक कर दिया। एक बार उसने अपने मामा से सुवर्णकुल के बारे में पूछा तो उसने कहा “यहाँ से बीस योजन दूर वह नगर है। मैंने सुना है कि बडे श्रेष्ठियों का बड़ा वाहन वहाँ पाया है।" यह बात सुनकर नट की तरह रोष और तोष से मामा को पूछकर वह शीघ्र इस नगर में पाया। "क्रोधातुर वह पूछता हुमा यहाँ आया और तुझे मिला। कर्मयोग के अनुसार ही सभी संयोग और वियोग रहे हुए हैं।" करुणासागर मुनि भगवन्त ने शंखदत्त को पूर्वजन्म सम्बन्धी सर्वघटना सुना दी और कहा-“हे शंखदत्त ! पूर्वभव में तुमने इसे मारने की इच्छा की थी, अतः इस बार इसने तुझे मारने की इच्छा की। गाली का बदला गाली की तरह, घात का बदला घात से पूरा हो गया। अब तुम परस्पर परम प्रीति रखना, क्योंकि यहाँ और परलोक में भी मैत्री ही सर्व अर्थ को सिद्ध करने वाली है।" उसके बाद उन दोनों ने परस्पर अपने अपराधों की क्षमायाचना की और परम प्रीति वाले बने। प्रथम मेघवृष्टि की तरह सफल ऐसे गुरुवचन से क्या नहीं होता है ! गुरुदेव ने धर्मदेशना देते हुए कहा-"हे भव्यो! तुम सम्यक्त्व आदि धर्म को स्वीकार करो जिसके प्रभाव से समस्त इष्ट अर्थ की सिद्धि होती है। कहा भी है-"दूसरे धर्मों का सेवन करने पर वे आम्र आदि वृक्ष के समान आम्र आदि नियत फल देते हैं, जबकि जैनधर्म की सम्पूर्ण आराधना करने पर वह कल्पवृक्ष की भाँति समस्त फल देने वाला है।" इस धर्मदेशना को सुनकर मोक्षाभिलाषी राजा आदि ने सम्यक्त्वपूर्वक देशविरति धर्म
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy