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________________ श्रावक जीवन-दर्शन/३०७ ऊँट की चोरी की तरह कितनी असंगत है-इस प्रकार विस्मित हुए राजा ने श्रीदत्त को बुलाया और उससे पूछने योग्य बात पूछी। "मैं सत्य बात कहूंगा तो भी उसे यह मानेगा नहीं" इस प्रकार विचार कर श्रीदत्त ने कुछ भी व्यक्त उत्तर नहीं दिया। कहा भी है बन्दर के संगीत और तैरती हुई शिला की भाँति कोई असम्भवित घटना प्रत्यक्ष दिखाई दे तो भी उसे नहीं कहना चाहिए। पापकर्म से व्यक्ति नरक में जाता है, वैसे ही राजा ने उसे कैदखाने में डाल दिया और कुपित होकर उसकी सम्पत्ति को भी मुद्रित (Seal) कर दिया और उसकी पुत्री को दासियों के बीच अपने भवन में रख लिया। सचमुच विधाता (भाग्य) की तरह राजा की भी किसी से मित्रता नहीं है। श्रीदत्त ने सोचा-"पवन से बढ़ने वाली अग्नि की तरह मेरे नहीं बोलने से राजा कुपित हुआ है , अतः मैं सत्य बात ही कह दूं, जिससे मेरा भी कल्याण हो।" इस प्रकार विचार कर उसने अंगरक्षकों के द्वारा राजा को विज्ञप्ति की। राजा ने भी उसे बन्दीगृह में से बाहर निकालकर पूछा तब उसने कहा-"उसे बन्दर ले गया है।" इस बात को सुनकर सब लोग हँस पड़े और आश्चर्य करने लगे-"अहो ! इसने कैसा सत्य कहा है ! अहो ! इस दुष्ट की घृष्टता कैसी है !" कोप से कम्पित हुए राजा ने शीघ्र ही उसके वध के लिए आदेश दे दिया। "बड़ों का रोष और तोष तत्काल. फलदायी होता है।" कसाई जिस तरह बैल को ले जाता है, उसी प्रकार राजा के अत्यन्त वीर सुभट उसे वध्यस्थान की ओर ले जाने लगे, तब श्रीदत सोचने लगा, "पुत्री-माता के भोग की इच्छा एवं मित्रद्रोह का पाप मुझे आज ही फल गया है। दुर्देव को धिक्कार हो, जिसका इतना बुरा परिणाम आता है। अहो ! सच बोलने पर भी यह कैसा परिणाम ! क्षुब्ध समुद्र के समान भाग्य के विरुद्ध होने पर उसको रोकने में कौन समर्थ है!" कहा है "कदाचित् कोई अपनी लहरों से पर्वत को तोड़ देने वाले भीषण समुद्र के प्रवाह को रोक दे, परन्तु पूर्वजन्म में उपार्जित शुभ-अशुभ कर्म के दिव्य परिणाम को कोई नहीं रोक सकता है।" मानों श्रीदत्त के पुण्य से ही आकर्षित नहीं हुए हों, इस प्रकार इस देश में विचरते हुए मुनिचन्द्र नाम के केवली भगवन्त वन में पधारे। उसी समय उद्यानपाल ने जाकर राजा को विज्ञप्ति की। राजा भी अपने परिवार के साथ वहाँ आया और नमस्कार करके प्रभात के भोजन की तरह उसने धर्मदेशना की याचना की। जगबन्धु गुरु भगवन्त ने कहा-"जो नीतिमान् नहीं है, उसको धर्म नहीं है, बन्दर को दी गयो रत्नमाला की तरह उसे दी गयी धर्मदेशना का क्या मूल्य है ?" सम्भ्रान्त हुए राजा ने कहा--"मैं अन्यायी कसे ?" मुनिवर ने कहा-"सत्यभाषी श्रीदत्त का वचन क्यों नहीं मानता है ?"
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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