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________________ श्राद्धविषि / ३०० नहीं है, जहाँ पर सभी जीवों ने अनन्त बार जन्म और मरण नहीं किया हो । अतः कहीं पर भी राग और द्वेष नहीं करना चाहिए। केवल समता को धारण कर व्यवहार मार्ग का अनुसरण करना चाहिए ।" ( ५ ) श्रीदत्त मुनि को वैराग्य क्यों ? श्रीदत्त मुनि ने कहा- मुझे भी ऐसा ही सम्बन्ध विशेष वैराग्य का कारण हुआ है । उसे तुम ध्यानपूर्वक सुनो। श्रीदेवी के मन्दिर समान श्रीमन्दिरपुर नाम के नगर में दुर्दान्त, स्त्रीलम्पट और कपटप्रिय सूरकान्त नाम का राजा रहता था। उसी नगर में उदार, राजा को मान्य, श्रेष्ठियों में अग्रणी सोम नाम का सेठ रहता था । लक्ष्मी के रूप को भी जीतने वाले रूप वाली सोमश्री नाम की उसकी पत्नी थी। उनके श्रीदत्त नाम का एक पुत्र था और श्रीमती नाम की पुत्रवधू थी। उन चारों का संयोग पुण्ययोग से ही हुआ था। कहा भी है " जिसका पुत्र आज्ञाकारी है, पत्नी पतिव्रता और आज्ञानुसारिणी है और जिसे प्राप्त धन में सन्तोष है, उसके लिए यहीं पर स्वर्ग है ।" सोमश्री के साथ क्रीड़ा करने के लिए एक बार सोमसेठ उद्यान में गया। अचानक भाग्ययोग से राजा भी वहाँ ग्रा गया । वहाँ सोमश्री को देखकर राजा का रागसागर उछलने लगा । दुष्ट हृदय वाले उस राजा ने उसी समय उसे अपने अन्तःपुर में डाल दिया। कहा भी है " यौवन, धन-सम्पत्ति, स्वामित्व और अविवेक ये चारों एक-एक भी अनर्थकारी हैं तो फिर उन चारों के मिलन पर तो क्या बात करना ?" सोमश्रेष्ठी की प्रेरणा से मंत्री आदि ने राजा को कहा - "दुर्नीति तो राज्यलक्ष्मी रूपी लता में दावाग्नि समान है तो फिर राज्य की वृद्धि का अभिलाषी परस्त्री की इच्छा कैसे करे ? राजा तो अन्य लोगों को भी अन्याय से रोकता है, यदि वह स्वयं ही अन्याय कर बैठे तब तो लोक में मत्स्य गलगल न्याय फैल जायेगा ।” इस प्रकार कहने पर भी राजा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा बल्कि उसने अग्निवर्षा के समान दुष्टवाक्य ही कहे । इस दुष्ट चेष्टा को धिक्कार हो अथवा जैसे सूर्य की किरणों के सम्पर्क से सूर्यकान्तमरि बरसाता है वैसे ही सूरकान्त राजा मंत्रियों की वाणी से दुष्टवाक्य रूपी अग्नि बरसाये, वह युक्त ही है । मंत्रियों ने सेठ को कहा - "हे श्रेष्ठिन् ! अब कोई उपाय दिखाई नहीं दे रहा है। हाथी का कान किस प्रकार पकड़ा जा सकता है ? राजा को किस प्रकार रोका जाय ?" " रक्षा के लिए लगायी गयी बाड़ ही यदि चिभड़ों को खाने लग जाय तो फिर दक्ष पुरुष भी किस प्रकार रक्षा कर सकेंगे ?" लोक में भी कहा है
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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