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________________ श्राद्धविधि / २७६ (2) प्रणुव्रत प्रतिमा --- पूर्व प्रतिमा के अनुष्ठान से युक्त अखण्डित व अविराधित रूप से दो मास तक अणुव्रतों का पालन करना । ( 3 ) सामायिक प्रतिमा - पूर्वोक्त प्रतिमा अनुष्ठान सहित तीन मास तक उभयकाल अप्रमत्त होकर सामायिक का पालन करना । (4) पौषध प्रतिमा - पूर्वोक्त प्रतिमा सहित चार मास तक चार पर्व तिथि के दिन अखण्डित परिपूर्ण पौषध का पालन करना । # (5) कायोत्सर्ग प्रतिमा - पूर्वोक्त प्रतिमा सहित पाँच मास तक स्नान का त्याग कर, रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग कर, दिन में ब्रह्मचर्य पालन पूर्वक, लांग को बिना बाँधे, चार पर्व तिथियों में घर में, गृहद्वार में, चौराहे पर परिषह व उपसर्ग से निष्कम्प होकर समस्त रात्रि कायोत्सर्ग में रहना । इस प्रकार आगे कही जाने वाली प्रतिमानों में भी पूर्वोक्त प्रतिमाओं का पालन समझ लेने का है । कराना । (6) ब्रह्मचर्य प्रतिमा - छह मास तक ब्रह्मचारी रहना । ( 7 ) सचित्तत्याग प्रतिमा - सात मास तक सचित्त आहार का त्याग करना । ( 8 ) प्रारम्भत्याग प्रतिमा- प्राठ मास तक स्वयं प्रारम्भ नहीं करना । ( 9 ) प्रेषणत्याग प्रतिमा - नौ मास तक किसी नौकर को भेजकर भी आरम्भ नहीं ( 10 ) उद्दिष्टपरिहार प्रतिमा - दस मास तक मस्तक का मुण्डन कराना अथवा चोटी रखना, , खजाने में रखे धन सम्बन्धी कोई स्वजन प्रश्न करे तो स्वयं जानता हो तो बताना और नहीं जानता हो तो "मैं नहीं जानता" इतना ही कहना, इसको छोड़ अन्य समस्त गृहकार्यों का त्याग करना और स्वयं के लिए बना हुआ प्रहार भी ग्रहण नहीं करना । ( 11 ) धमरणभूत प्रतिमा - ग्यारह मास की यह प्रतिमा है, घर आदि का संग छोड़कर लोच कराकर अथवा उस्तरे से सिर मुण्डन कराकर, रजोहरण और पात्र यादि मुनिवेष को धारण कर अपने अधीन गोकुल आदि में रहते हुए “प्रतिमाप्रतिपन्न श्रमणोपासक को भिक्षा दो" इस प्रकार बोलकर भिक्षा ग्रहण करना परन्तु 'धर्मलाभ' शब्द नहीं कहना और सुसाधु के आचार का पालन करना यह ग्यारहवीं प्रतिमा है । 5 अन्तिम प्राराधना 5 आयुष्य के अन्त में सल्लेखनादि विधि से प्राराधना करनी चाहिए। 'आवश्यक योगों का भंग होने पर और मृत्यु का आगमन होने पर आदि में सल्लेखना करके और संयम को स्वीकार करके....' इत्यादि जो बातें आगम मे कही गयी हैं, तदनुसार श्रावक जब पूजा - प्रतिक्रमण आदि अवश्य करने योग्य कर्त्तव्यों के पालन में अशक्त हो जाय और मृत्यु नजदीक आ जाय तब द्रव्य और भाव से दो प्रकार की सल्लेखना करता है ।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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