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________________ श्रावक जीवन-दर्शन/२७३ लोगों के लिए दुःखदायी ऐसे कामदेव को जीतकर जिन्होंने कुमारावस्था में ही दीक्षा स्वीकार की है, ऐसे बालमुनियों को धन्य है।" बाल्यवय में दीक्षा न ले सके और कर्मयोग से गृहस्थ-जीवन में रहना पड़े तो वह श्रावक सर्वविरति के अध्यवसाय में एकाग्रचित्त होकर, दो घड़ों को मस्तक पर वहन करने वाली स्त्री, सती आदि की तरह, गृहस्थ-जीवन का पालन करता है। कहा है-“एकाग्रचित्त रहा योगी अनेक कर्म करने पर भी, जल को वहन करने वाली स्त्री की तरह कर्म के लेप से लिप्त नहीं होता है।" परपुरुष में आसक्त नारी जिस प्रकार पति का (दिखावे मात्र से) अनुसरण करती है, उसी प्रकार तत्त्व में लीन योगी संसार का अनुसरण करता है।" जिस प्रकार विचारशील वेश्या इच्छा बिना भी भोगी पुरुष का स्वागत आदि करती है परन्तु वह यह विचार करती है कि इस कार्य का मैं कब त्याग करूंगी; वैसे ही श्रावक भी आज, कल संसार का परित्याग करूगा, यही भावना करता है। जिसका पति विदेश गया है ऐसी कुलवधू नवीन स्नेह के रंग से रंजित होकर पति के गुणों का स्मरण करती हुई शरीर का निर्वाह (भोजन आदि) करती है। इसी प्रकार सर्वविरति को मन में धारण कर और अपने आपको नित्य अधन्य मानता हुआ सुश्रावक अपने गृहस्थ-जीवन का पालन करता है। वे पुरुष धन्य हैं जिन्होंने मोह के फैलते हुए प्रभाव को नष्ट कर जिन-दीक्षा स्वीकार की है। सचमुच उन्होंने पृथ्वीतल को पावन किया है । + 'धर्मरत्नप्रकरण' में भाव श्रावक के लक्षण भावश्रावक के लक्षण इस प्रकार कहे गये हैं (1) स्त्री के वशीभूत न हो-स्त्री अनर्थ को उत्पन्न करने वाली है। स्त्री चपल चित्त वाली है तथा नरक में ले जाने वाली है। ऐसा जानकर उसके अधीन नहीं होना चाहिए। (2) इन्द्रियसंयम-इन्द्रियाँ चपल घोड़े के समान हैं, जो हमेशा दुर्गति के मार्ग पर दौड़ने वाली है। भव के स्वरूप को जानने वाला श्रावक सम्यग्ज्ञान रूपी डोर से उन इन्द्रियों को वश में करता है। (3) अर्थ-लुब्ध न बनें-धन समस्त अनर्थों का मूल है। प्रयास व क्लेश के कारणभूत धन को असार जानकर बुद्धिमान व्यक्ति उसमें लेश भी लुब्ध नहीं होता है । (4) संसार में रति न करें-संसार को दुःखरूप, दुःखफलक, दुःखानुबन्धी, विडम्बनारूप और प्रसार जानकर श्रावक उसमें राग नहीं करता है। (5) विषयों में गद्धि न करें-भव भीरु और तत्त्वज्ञ श्रावक क्षणमात्र सुखदायी और विष की उपमा वाले विषयसुखों में गृद्धि नहीं करता है ।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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